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________________ ७४ महापुराण १६ अड्डाइज्जसहस णिरणंगहं। रिसिसीहहं सिक्खियपुव्वंगह। पण्णासइ संजुत्तहं भिक्खुहुं तीससहसदोलक्खई सिक्खुहुं । अट्ठाणउवि सैयाई तिणाणिहिं । सोलह सहसई केवलणाणिहिं । एक्कुणवीससहसई विक्किरियहं संख भणमि मणपज्जवरिसियहं । सावयगुणठाणेहिं सहासहिं छहसएहिं अण्णु वि पण्णासहिं । एक्कारहसहसाई विवाइहिं रिसिहिं तिण्णि लक्खई सज्झाइहिं । तवसंजमवयतणुरुहमाइहिं संजमधरिहिं सुद्धकुलजाइहिं । भोयभूमिसमसहसई चेयहिं लक्ख तिण्णि रिदुसयई वि वेयहि । अज्जियसंख एम जाणिजइ लक्खंत्तउ सावयहं गणिज्जइ । पंचलक्ख सावियह णिरुत्तर देवहिं देविहिं माणु ण उतँउ । घत्ता-विहरतहु महि परमेसरहु धम्मु कहतेहु भन्वहं॥ अट्ठारहवरिसइं°ऊणयरु एक्कु लक्ख गउ पुत्वहं ॥१६।। १७ इय पुन्वहं पण्णास जि लक्खइं गयई ण किं पि वि धाई णियाणइ हरिणहँअविहयकरिकुंभत्थलि लंबियकरु सहुं मणिसंदोहें गणहरमुणिवरसाहियसंखई। मासैसेसि थिउ आउपमाणइ । तहिं संमेयगिरिंदवणथलि । दुण्णि पक्ख थिउ जोयणिरोहें। निष्काम पूर्वांगधारी मुनिश्रेष्ठ ढाई हजार, संयमी शिक्षक दो लाख तीस हजार पचास, अवधिज्ञानी नौ हजार आठ सौ, केवलज्ञानी सोलह हजार, विक्रिया ऋद्धिधारी उन्नीस हजार, मनःपर्ययज्ञानधारियोंको संख्या कहता हूँ, वे ग्यारह हजार छह सौ पचास हैं। वादी मुनि ग्यारह हजार, इस प्रकार श्रुत ध्यानवाले कुल तीन लाख मुनि उनके साथ थे। तप, संयम, व्रत और शरीरकी कान्तिसे युक्त शुद्ध कुल जातिवाली तथा संयम धारण करनेवाली आयिकाओंको तीन लाख तीस हजार छह सो जानो। आर्यिकाओंको संख्या इस प्रकार जानना चाहिए, श्रावकोंको तीन लाख गिना जाये । श्राविकाओंको निश्चित रूपसे पांच लाख जाना जाये। देवों और देवियों को वहां कोई गिनती नहीं थी। घत्ता-इस प्रकार धरतीपर विहार करते हुए और भव्यजनोंके लिए धर्मका कथन करते हुए परमेश्वरके अठारह वर्ष कम, एक लाख पूर्व वर्ष व्यतीत हो गये ॥१६।। १७ गणधर मुनिवरों द्वारा कहे गये एक लाख पचास हजार पूर्व वर्ष बीत गये। अन्तमें कुछ भी नहीं रहता, केवल उनकी आयुका प्रमाण एक माह शेष रह गया, जहाँ सिंहके द्वारा हाथियोंके कुम्भस्थल आहत नहीं किये जाते, ऐसे सम्मेदशिखर पर्वतपर, मुनिसमूहके साथ हाथ ऊपर कर दो १६.१. A रिसिसोसहं । २. P सयई तिण्णाणिहिं। ३. A P एयारह । ४. A omits this foot, ५. A omits this foot. ६. A विरयहिं । ७. P लक्खतइउ । ८. A P add after this : मिलिउ तिरिक्वविदु संखेज्जउ, एत्तियजणहं करिवि साहिज्जउं । ९. A P कहंतहं । १०. A वरिसहं। १७.१. A Pठाइ । २. A माससेस थिय । ३. A हरिणहअविस्य; P हरिणहयरि हय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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