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________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित १५ इंदणरिंदचंदसूराउलु बहुपालिद्धय अट्ठ महाधय धम्मचक्कु अग्गइ अवइण्ण उं मोरह जेणं रद्द जसु तवेण कंपइ भूमंडलु छत्तइंदुरिया विणिवार इं मोक्सोक्खु जि जायउं फलु अवरु वि अरुहहु उत्तमसत्तहु आयासह णिass कुसुमावलि रंज अलि तर सिंथ ण मेरी दुंदुहि खणु वज्जंति ण थक्कइ दिव्वें घोसँ भुवणु वि सुज्झइ समवसरण जिणरायहु राउलु । पसुकोट्टई दक्खालिय हय गय । सुरणैररमणि छष्णउं । उलियर थिय संमुह णव गह । अवसें तासु होइ भामंडलु । चमरइं भवसीणत्तणतारई । सो असोउ किं वण्णमि चर्लदलु । आसणु सासणु तिजगपहुत्तहु । सरु भीयल भासइ ण सरावलि । णिच्छउ सामिय आण तुहारी । लो धम्म णिहुं णं कोक्कइ | अपरं परु परलोड वि बुज्झइ । घत्ता - सिरिवज्जणाहु णिवु "धुरि करिवि सोलविमलजलवाहहं ॥ तिहिं सहिय सउ संतासयहं संजायउ गणण हहं ॥ १५ ॥ - ४१. १५.१४ ] ७३ १५ इन्द्र, नरेन्द्र, चन्द्र और सूर्यसे परिपूर्ण समवसरण जिनराजका राजकुल था । आठ महाध्वज थे और छोटे-छोटे ध्वज अनेक थे । पशुओंके कोठोंमें अश्व और गज दिखाई देते थे । आगे धर्मचक्र अवतीर्ण हुआ । प्रांगण सुरों और नरोंकी रमणियोंसे भर गया। जो-जो पूर्णरथ थे, वे किसी भी प्रकार अपने दोनों हाथ जोड़कर उनके सम्मुख नवग्रहके समान स्थित थे। जिसके तपसे भूमण्डल कांप उठता है; उनके लिए अवश्य भामण्डल प्राप्त होगा । दुरितोंके आतपका निवारण करनेवाले छत्र, संसारकी थकानको दूर करनेवाले चामर होंगे। जिन्हें मोक्ष और सुखका फल प्राप्त है, उनका चंचल पत्तोंवाले अशोकके रूपमें क्या वर्णन करूँ। और भी उत्तम सत्त्ववाले श्री अरहन्तके आसन और त्रिजगकी प्रभुताके शासनका क्या वर्णन करूँ ? आकाशसे पुष्पोंकी अंजलि गिरती है, कामदेव डरता है, उनपर अपना तीरावलि नहीं छोड़ता । भ्रमर रोता है कि वह मेरी प्रत्यंचा नहीं है। हे स्वामी, यह निश्चय ही तुम्हारी आज्ञा है, दुन्दुभि बजते हुए थकती नहीं, लोगोंको धर्म सुननेके लिए मानो वह पुकार रही है, दिव्यघोष से भुवन शुद्ध होता है और स्वपर तथा परलोकको समझने लगता है । १० घत्ता - श्री वज्रनाथ ( वज्रनाभि ) को प्रमुख गणधर बनाकर, शीलरूपी विमल जलको वहन करनेवाले और शान्तचित्त एक सौ तीन गणधर हुए ॥१५॥ Jain Education International १५. १. A P रावलु । २. AP पंगणु । ३. P सुरवररमणिहि । ४. A ते णय रहं । ५. AP दुरियावयं । ६. A भवरोणत्तणु; P भवझोणत्तणु । ७. A P मोक्खसोक्खु । ८. AP वरदलु । ९. A कुसुमाउलि । १०. AP जइ । ११. A धरिवि धुरि । १० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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