SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९५ -६१. १२. ११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सोहम्मि अमरु हूई मरेवि एत्तहि महि चक्के वसि करेवि । खग माणेव दाणव जिणिवि समरि णारायण सीरि पइट्ठ णयरि। घत्ता-बलए विजयासुंदरिहि हूई सुय णामें सुमइ ॥ कंकेल्लिपल्लवारत्तकर पाडलपिल्लयमंदगइ ।।११।। १२ णियमियदुद्दममणवारणासु घरु आयउ दमवरचारणासु । संपुण्णु अण्णु दिण्णउं समिधु पंचच्छेरउ पत्ती पसिर्छ । दिट्ठी पिउणा सुय दिण्णदाण णवजोवण रूवं सोहमाण । संणिहियसयंवरमंडवंति देसंतरायणररायकंति । जोवइ वरु जाकिर रहवरत्थ तावच्छर चवइ वरंबरस्थ । हलि दिल्लिदिलिए ण भरहि काई पई मई मि सम्गि भणियाइं जाई। जा पुत्वमेव ण लहइ णिजम्म सा इयरहि अक्खइ परमधम्मु । सुणि विहिं मि भवंतरु कहमि माइ पुक्खरवरद्धपुग्विल्लभाइ। भरहे णंद उरइ णं सुरिंदु णामेण अमियविकमु तहु अस्थि अणंतमइ त्ति भज्ज वरकइविज्जा इव जणमणोज । धणसिरि अणंतसिरि तहि सुयाउ हउं तुहुं बेण्णि वि सुललियभुयाउ । पास स्थित हो गयी। मरकर वह सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुई। यहां धरतीको चक्रसे जीतकर तथा विद्याधर, मनुष्य और दानवोंको युद्ध में जोतकर बलभद्र और नारायण नगरमें प्रविष्ट हुए। घत्ता-बलभद्र और विजयासुन्दरीसे सुमती नामकी सुन्दरी हुई। अशोक पल्लवोंके समान आरक्त हाथोंवाली और बालहंसके समान गतिवाली ॥११॥ १२ - जिन्होंने मनरूपी दुर्दम गजको वशमें कर लिया है ऐसे घर आये हुए दमवर चारण मुनिको उसने सम्पूर्ण और समृद्ध आहार दिया। वहां पांच आश्चर्य प्राप्त हुए। दान देनेवाली कन्याको पिताने देखा कि वह नवयौवनवती और रूपसे शोभित है। जिसमें देशान्तरके राजाओं और मनुष्य राजाओंको कान्ति है, ऐसे उस नवनिर्मित मण्डपमें रथवरपर बैठी हुई वह वर देखती है तो आकाशमें स्थित एक अप्सरा उससे कहती है-हे कन्ये, यह तुम्हें याद नहीं आ रहा है कि जो मैंने और तुमने स्वर्गमें कहा था कि जो पहले मनुष्य-जन्म नहीं लेगा वह दूसरेसे परमधर्म कहेगा। हे आदरणीय सुनो, दोनोंके जन्मान्तरका कथन करता हूँ। पुष्करार्ध द्वीपके पूर्वभागमें भरतक्षेत्रके नन्दनपुरमें सुरेन्द्र के समान अमितविक्रम नामका राजा था। उसकी अनन्तमती नामकी भार्या थी, जो वरकविको विद्याकी तरह लोगोंके लिए सुन्दर थी। उसकी मैं और तुम दोनों सुन्दर भुजाओंवाली धनश्री और अनन्तश्री नामकी कन्याएं थीं। २. AP दाणव माणव । ३. AP सवरि । ४. AP णाराइण । १२. १. AP संपक्कु । २. A समिट्ठ । ३. A सिट्ठ । ४. A सरहि । ५. A नृजम्मु । ६. P णंद उरिहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy