SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -६०. १७. ६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३७१ पायड करिवि नृवेहु दक्खालिय विज पणटू भीयवेयालिय। महिवइ विभैइवसु अवलोइवि खयरें भणिउ णिसुणि मणु ढोइवि । जंबुद्दीवि भरहखेत्तरि । चारुधोयकलहोयमहीहरि । दाहिणसेढिहि जोइप्पहपुरि उज्जाणंतथंतकीलासुरि। हउं तहिं पहु णामें संभिण्णउ अमियतेय किंकरु माणुण्णउ । संजय पणइणि सुउ दीवयसिहु महुं ओहच्छइ णं कंतिइ विहु । जणण तणय ए अम्हइं अवलोयंति सिहरिदरिकदर । चिरु परिभमिवि रमिवि पिउ बोल्लिवि गयणुल्ललिय जाम वणु मेल्लिवि। पइवय परमेसरि अहिमाणिणि ता रुयंति णहि णिसुणिय माणिणि । पत्ता-णिरु उक्कंठिय अच्छमि वल्लह पई कहिं पेच्छमि ।। हा सिरिविजय पधावहि कुढि लग्गहि म चिरावहि ॥१६॥ १७ हा हा अमियतेय दुंदुहिरव इहु अवसरु तुहु वट्टइ बंधव । हा हा माम तिविट्ठ महाबल पई जीवंति णेंति मेई किं खल। हा सासुइ देवर साहारहि मई रोवंति काई ण णिवारहि । हा हलहर पई अप्पउं तारिउ महुँ लग्गंतु कुपुरिसुणे णिवारिउ । हा हे घोर जार जैगि सारहु मई लहु णेहि पासि भत्तारहु । जइ वि मईणु तुहुं तो वि ण इच्छमि पई हउँ जणणसरिच्छु णियच्छमि । ताड़ित किया और उसे प्रकट कर राजाको बता दिया, वहीं भीम वैतालिक विद्या नष्ट हो गयी। विस्मयके वशीभूत राजाको देखकर विद्याधर बोला-"मन लगाकर सुनो, जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में, जिसके उद्यानोंमें देव क्रीड़ा करते हैं ऐसे ज्योतिप्रभ नगर है । मैं उसका राजा सम्भिन्न हूँ। मानसे उन्नत, अमिततेजका अनुचर । मेरी प्रणयिनीसे दीपशिख नामका पुत्र हुआ, वह मेरे साथ है मानो कान्तिके साथ चन्द्र हो। हे सुन्दर, इस प्रकार हम पितापुत्र हैं। पर्वतको घाटियों और गुफाओंको देखते हुए खूब परिभ्रमण कर, रमण कर और प्रिय बोलकर वन छोड़कर जैसे ही आकाशमें उछले, वैसे ही हमने पतिव्रता स्वाभिमानिनी एक मानिनीको आकाशमें रोते हुए ( इस प्रकार ) सुना। पत्ता-"मैं अत्यन्त उत्कण्ठित हूँ। हे प्रिय, मैं तुम्हें कहाँ देखू ? हे श्रीविजय दोड़ो, पीछे लगो, देर मत करो" ||१६|| १७ हा-हा ! दुन्दुभिके समान शब्दवाले अमिततेज, है भाई यह तुम्हारा अवसर है। हे ससुर त्रिपृष्ठ और महाबल, तुम्हारे जीवित रहते हुए दुष्ट मुझे क्यों ले जा रहे हैं ? हे सास, हे देवर, तुम मुझे सहारा दो।" मुझ रोती हुईको तुम मना क्यों नहीं करते ? हे बलभद्र, तुमने अपना उद्धार कर लिया, मेरे पीछे लगे हुए कुपुरुषको तुमने मना नहीं किया। हा हे घोर जार, जगमें श्रेष्ठ मेरे पतिके पास तुम मुझे ले चलो, यदि तुम कामदेव हो तो मैं तुम्हें नहीं चाहती। मैं तुम्हें २. P णिवह । ३. AP विभयवसु । ४. P तेउ । ५. A तणय बे यम्हइं । ६. AP कह पइं । १७. १. AP कि मई । २. A ण वारिउ । ३. AP जगसारहु । ४. AP मयणु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy