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________________ ४२२ महापुराण [६२. २०.५किं खेयरीउ किं अच्छरउ तुह दसणमणउ अमच्छरउ। तं व्हाइवि जणमणसाहणउं लहुं लइयउं ताइ पसाहणउं । सुरणारिउ पुणु पइसारियउ माणवजणदूरोसारियउ । अवलोइवि झीणु रूवविहवु देवयहिं पवुत्तु ण किं पि धवु । तेरउ सरूउ रूवहु ढलिउ पुग्विल्लहि रेहहि परिगलिउ । घत्ता-ता रईसुहि णिविण्णी सा पियभित्त विसण्णी ॥ सम्मण दुम्मण थक्की माणमर? मुक्की ॥२०॥ २१ तं पेक्खिवि गउ मणहरवणहु राणउ पणविवि घणरह जिणहु । चउपवपयारि अणासयहं आउच्छइ वित्ति उवासयहं । सावयअज्झयणु ण तं रहेइ सत्तमउ अंगु रिसिवइ कहइ । विविहउ घरधम्मपवित्तियउ किरियाउ असेसउ उत्तियउ । दढरहिण ण रज्जु समिच्छियउ णीसारु दुरंगु दुगुंछियउ । सुउ मेहसेणु पच्छइ थविवि मेहरहिं जिणवरु विण्णेविवि | सहुँ भाइइ सहसा लइउ तउ बारह विहु सोसिउ विसमभउ । धीरहिं णिदियइंदियसिवहिं भयसमसहसहि सह पत्थिवहिं । घत्ता-सि रिपुरि घरि सिरिसेणहु भुंजिवि दिण्णसुदाणहु ।। अंतयपुरि णिवणंदहु थाइवि अमराणंदहु ।।२१।। ईर्ष्यासे रहित वे तुम्हें देखनेका मन रखती हैं ? तब उसने स्नान कर तथा जनमनको आकर्षित करनेवाला प्रसाधन कर लिया। फिर मनुष्यजनको दूरसे हटानेवाली देवस्त्रियोंको भीतर प्रवेश दिया गया। उसके रूपवैभववाले शरीरको देखकर देवियोंने कहा कि ( संसारमें ) स्थिर कुछ भी नहीं है । तुम्हारा स्वरूप रूपसे ढल गया है, पूर्वकी शोभासे गल गया है। घता-रतिसुखसे विरक्त विषण्ण, उन्मन और दुर्मन वह प्रियमित्रा मानके अहंकारसे मुक्त होकर श्रान्त हो गयी ।।२०।। १० २१ उसे इस प्रकार देखकर राजा मनहर बन गया और धनरथ जिनको प्रणाम कर उसने कर्मास्रवसे रहित उपासकों ( श्रावकों ) की वृत्ति पूछो। ऋषीश्वर सातवें अंग उपासकाध्ययनका कथन करते हैं, वह उसे छोड़ते नहीं। गृहस्थ धर्मको विविध-प्रवृत्तियों, अशेष क्रियाओं और उक्तियोंका उन्होंने कथन किया । दृढ़रथने राज्यकी इच्छा नहीं की। असार और दुरंगी चालवाले उसकी निन्दा की। बादमें अपने पुत्रको राज्यमें स्थापित कर मेघरथ जिनसे निवेदन कर अपने भाईके साथ इन्द्रिय सुखकी निन्दा करनेवाले सात सौ राजाओंके साथ उसने बारह प्रकारका तप ले लिया, और संसारके भयको नष्ट कर दिया। पत्ता-श्रीपुरमें सुदानको देनेवाले श्रीषेण राजाके घर आहार कर और देवोंको आनन्द देनेवाले नन्दन राजाके प्रासादमें ठहरकर ॥२१॥ ४. A समच्छरठ । ५. Aसुहणिविण्णी । २१.१. A हरइ । २. A विण्णिविवि; P वेण्णविवि । ३. A विसमतउ । ४. A णिवदाणह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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