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________________ -६२. २३.५ ] तहिं 'भत्तपाणगिइि रहिउ पइसिवि वर्णगिरिवरकंदरइ णिण्णासइ सत्त वि सो भयई दिदु बंभचेरु णव विहु धरिउ दह भेउ विकालु विलक्खियउ बारह अणूंपेक्खड चिंतवइ दहगुणठाणई अब्भसइ परिभाविवि सोलह कारणई महाकवि पुष्पदन्त विरचित २२ इच्छिवि णिच्छियमत्तासहिउ । फणिविच्छिघर तर्फे कोडुरइ | चिंधई तहु अट्ठ वि गयई । दहविहु जिणधम्म परिष्फुरिउ । एयारह अंगई सिक्खियउ । तेरह चारित थिरु थवइ । पणारहविह पमाय पुसइ । तित्थयरत्तणहक्कारणई । गउ हतिलयगिरिंदहु || तहिं अणसणिण परिट्ठि ||२२|| २३ घत्ता- - सहुं बंधवेण अणिदहु दूसह णिट्ठाणिि हिउल्लउं मुणिमग्गेण णिउ जइपुंगम घणरह्रायसुय सव्वत्थसिद्धिसुरहरि धवल तेत्तीस सहजीवियपवर तइ वरिससहास लेंति खणु पागमरण मातु किउ । बेणि वि ते अहमिंद हुय । करमेत्तदेह वरमुहकमल । तेत्तिय जिं पक्ख णीसासधर । आहारु विचिंति सुहेमु अणु । Jain Education International ४२३ १० २२ वहाँ भोजन और पानकी इच्छासे रहित, निश्चित मात्रासे युक्त ( भोजन ) चाहकर सर्पों और बिच्छुओं के घर तथा वृक्ष कोटरवाली वनगिरिकी गुफाओं में प्रवेश कर, वह भी सात भयों का नाश करते हैं, मानके आठ चिह्न भी उनसे चले गये । उन्होंने नौ प्रकार के दृढ़ ब्रह्मचर्यका पालन किया। दस प्रकारका धर्म उनमें स्फुरित हो उठा। दस प्रकारके मुनि-आचारको भी उन्होंने जान लिया। उन्होंने ग्यारह अंगोंको सीख लिया । वह बारह अनुत्प्रेक्षाओंका चिन्तन किया । तेरह प्रकारके चारित्रोंकी स्थापना करता | चौदह गुणस्थानोंका अभ्यास करता | पन्द्रह प्रकारके प्रमादों का नाश करता है। तीर्थंकरत्वका बन्ध करनेवाली सोलहकारण भावनाओंका विचार कर ५ घत्ता - अपने भाई के साथ, वह अनिन्द्य नभस्तिलक पर्वत के लिए गये । असह्य निष्ठामें निष्ठ वह वहाँ अनशन में स्थित हो गये ||२२|| For Private & Personal Use Only २३ अपने हृदयको मुनिमार्ग में लगाकर एक माह के प्रायोपगमन उपवास किया। दोनों यतिश्रेष्ठ घनरथ और उसका पुत्र मृत्युको प्राप्त हुए और दोनों सर्वार्थसिद्धि के विमान में अहमेन्द्र उत्पन्न हुए। दोनों गोरे, एक हाथ शरीरवाले, श्रेष्ठ मुखकमल और तैंतीस सागर प्रमाण आयुसे युक्त उत्तम जीवनवाले थे । वे उतने ही पक्षों में श्वास लेते थे । तैंतीस हजार वर्षों में एक क्षण में २२. १. AP भत्तु पाणु । २. A वणे गिरिं । ३. A विच्छियतरुगिरिं । ४. AP कोडर । ५. AP सो सत्त विभय । ६. AP अणुवेक्खउ । ७. P तेरह वि चरितइं थिरु घरइ । २३. १. A पाउवगमणु । २. AP मुय । ० ३. A हरधवल । ४. AP लहिं । ५. A सुमु । www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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