SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महापुराण [३८. ३.७ किं किउ काइं वि मई अवराह अवरु को वि किं विरसुम्माहउ । भणु भणु भणियउं सयलु पडिच्छविं हउं कयपंजलियरु ओहछविं । घत्ता-अथिरेण असारे जीविएण किं अप्पउ संमोहहि ।। तुहे सिद्धहि वाणीधेणुयहि णवरसखीरु ण दोहहि ॥३।। तं णिसुणेप्पिणु दरविहसंते मित्तमुहारविंदु जोयतें। कसणसरीरें सेहकुरूवें मुद्धाएविगब्भसंभूवें। कासवगोत्ते केसवपुत्तें केइकुलतिलएं सरसइणिलएं। पुप्फयंतकइणा पडिउत्तउ भो भो भरह णिसुणि णिक्खुत्तउ । कलिमलमलिणु कालु विवरेरउ णिग्घिणु णिग्गुणु दुण्णयगारउ । जो जो दीसइ सो सो दुजणु णिप्फलु णीरसु णं सुक्कउ वणु। राउ राउ णं संझहि केरउ अस्थि पयट्टइ मणु ण महारउ । उव्वेउ जि वित्थरइ णिरारिउ एक्कु वि पउ वि रएवउ भारिउ । घत्ता-दोसेण होउ त उ भणमि चोज्जु अवरु मणि थक्कउ ।। जगु एउ चडाविउं चाउं जिह तिह गुणेण सह वंकउं ॥४॥ अपना मन क्यों नहीं लगाते ? क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है, या कोई दूसरी, उदासीनता उत्पन्न करनेवाली बात हो गयी है। कहो कहो, मैं कहा हुआ सबको स्वीकार करता हूँ। लो, यह हाथ जोड़कर तुम्हारी बात सुननेके लिए मैं बैठा हूँ। घत्ता-अस्थिर और असार जीवनसे तुम अपनेको सम्मोहित क्यों करते हो, तुम सिद्ध वाणीरूपी धेनुसे नव ( नौ | नया ) रस रूपी दूध क्यों नहीं दुहते ॥३।। १० यह सुनकर थोड़ा हंसते हुए मित्रका मुखकमल देखते हुए, कृश शरीर और अत्यन्त कुरूप मुग्धादेवीके गर्भसे उत्पन्न कश्यपगोत्रो केशवपुत्र, कविकुल तिलक और सरस्वतोके पुत्र पुष्पदन्त कविने प्रत्युत्तर दिया-हे भरत, तुम निश्चितरूपो सुनो । कलिके मलसे मैला यह समय विपरीत निर्गुण निर्गुण और दुर्नयकारक है, जो-जो दीखता है, वह दुर्जन है, वह निष्फल नीरस है, मानो शुष्कवन हो । ( लोगोंका ) राग सन्ध्याके रागकी तरह है, मेरा मन किसी अर्थमें प्रवृत्त नहीं होता, अत्यन्त उद्वेग बढ़ रहा है, एक भी पदकी रचना करना भारी जान पड़ रहा है। घत्ता-दोष होगा इसलिए नहीं कहता, मेरे मनमें दूसरा कुतूहल यह है कि यह विश्व गुणके साथ उसी प्रकार टेढ़ा है जिस तरह डोरी पर चढ़ा हुआ धनुष टेढ़ा होता है ॥४॥ ६. AP पडिच्छमि । ७. A कयपंजलि अरुहहं अच्छमि । ८. PT ओहच्छमि। ९. AP तुह । ४. १. A सुट्ठसुरूवें; P सुद्धकुरूवें । २. P कयकुल । ३. A omits सरसइणिलएं and reads उत्तमसत्तें in its place; P सरसय । ४. P adds after this | उत्तमसत्तें जिणपयभत्ते । ५. A रएंतउ । ६.Aणव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy