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________________ ३८ ५ १० उत्तहि जेतहि पडिय पुत्त अवहरिव विव्वियगरले भ उ ते सायरि सायरेण वसु वसुमइ सीहासैंणु मुवि णियजीविये चायपरिग्गहेण ता तेहि विमुक्कड णिहिलु गंधु जाया जइ णियजणणाणुयारि दोवासपयडपासुलियगत्त उत्तीणखप्परोयरकराल जट्टपुट्ठियेवं सपव्व कडयडियजाणुकोप्परपएस कंकालरूव जगभीमवेस महापुराण १७ मायाविसमुच्छारयेविलित्त । जीवाविय कउ णिम्मलु वियप्पु । भासियसुरेण महुरक्खरेण । गड तुम्हहं पिउ पावज्ज लेवि । तुम्हई विडिय गंगागण । गड जेण महाजणु सो जि पंथु । णीरंजण थिरमँण णिन्वियारि । [ ३९.१७. १ ર सकवालमूल सुणिलीणणेत्त । दीहरणह भासुरमवालें । विच्छिण्णगाव तवतावतिव्व । उववासखीण चम्मट्टिसेस | णिज्जणणिवासि सुइसुक्कलेस | घत्ता- - दिहिपरियर पसमियमयजर जमसंजमधरणुच्छव ॥ 'बहुखमदम कुचियकरकम णावइ थलगय कच्छव ||१७|| १४ Jain Education International १७ वह वहां गया जहाँ माया विषकी मूर्च्छाके वेगसे लुप्त पुत्र पड़े हुए थे । उसने वैक्रियिक विषको खींचकर भस्मको जीवित कर सुन्दर शरीरमें परिणत कर दिया। वे सगर-पुत्र आदर के साथ उठ बैठे । देवने मधुरवाणीमें उनसे कहा कि धन, धरती और सिंहासन छोड़कर तुम्हारे पिता संन्यास लेकर चले गये हैं। अपने जीवनके त्यागका परिग्रह है जिसमें, ऐसी गंगा लानेके आग्रहसे तुम लोग प्रवंचित हुए । यह सुनकर उन लोगोंने भी समस्त परिग्रहका परित्याग कर दिया और उसी रास्ते पर गये, जिसपर महाजन जा चुके थे । अपने पिताका अनुकरण करनेवाले वे निरंजन, निर्विकार और स्थिरमन मुनि हो गये। जिनके शरीर के दोनों पार्श्वभागों की पसुलियाँ निकल आयो हैं, जिनके नेत्र कपालके मूल भागमें लीन हो गये हैं, जो उठे हुए खप्पर के उदरसे भयंकर हैं जिनके लम्बे नाखून और चमकता हुआ रोमजाल है, जिनके पीठके बांसको गांठें दिखाई दे रही हैं, जिनका अहंकार जा चुका है, जो तीव्र तपके तापसे सन्तप्त हैं, जिनके घुटने और हथेलियोंके प्रदेश सूख गये हैं, जो उपवाससे क्षीण हैं और जिनकी केवल चमड़ो और हड्डियाँ शेष रह गयो हैं । जो कंकालस्वरूप और जगमें भयंकररूप धारण करते हैं, एकान्तमें निवास करनेवाले जो पवित्र शुक्ललेश्यावाले हैं | धत्ता - जो धैर्य के परिग्रहसे युक्त जराको शान्त करनेवाले, यम और संयमको धारण करनेका उत्सव करनेवाले, बहुत ही क्षमा और दयावाले तथा जिन्होंने अपने हाथ-पैर संकुचित कर लिये हैं ऐसे मानो स्थलपर रहनेवाले कच्छप हैं ॥१७॥ १७. १. A P जेत्तहि वेत्तहि । २. A रसपलित्त; P रयपलित । ३. Aगरलु दप्पु गरल सप्पु । ४. APसिंहास । ५. A जीवियराय । ६. AP मायागहेण । ७. P थिर मणि । ८. A P दोपासुपयडपंसुलियं । ९. A उत्ताणुयखप्परों । १०. A P° रोमजाल । ११. A गयबंभपव्व । १२. A P विच्छिण्णगव्व । १३. A P णिज्जणि णिवासि । १४. A P पिहुखमदम । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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