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________________ -३९. १८. २३ ] सुरधणुवलए गज्जत घणे Jain Education International सरिवहस रिसे संवियेले मृगरेवमुहले णिवसति इसी गलकंदलए ओसापसरे रिसियगयणे णिक्कंपमणा तमछइयदिसं हिमणिग्गणे गिरिसिहर गया संतावणिहि विसति जई णिज्जियविसय पालेवि समं विद्धत्थरयं जणतोसयरो णिट्ट वियरि अयमेय वयं यि पुत्तयहो जयलच्छि महाकवि पुष्पदन्त विरचित १८ विज्जुज्जए । हयविरहिणे | धारावारिसे । पवइंतजले । वणविडवितले | विलुलंति विसी । पुणु कंदलए | पत्ते सिसिरे । वाहिरयणे । धीरा समणा । गमयंति णिसं । गिम्हागमणे | सज्झाणरया । रविकिरणसिहि । सुविसुद्धमई । इय एरियं । पुत्तेहि समं । वायं । पत्तो सयरो | णिसुणेवि पि । गयमयणमयं । वरयत्त॑यो । दाऊण महि | १८ ३९ For Private & Personal Use Only ५ १० १५ इन्द्रधनुषसे मण्डित, विद्युत् से उज्ज्वल, विरहीजनोंको आहत करनेवाले मेघोंके गरजनेपर नदी के प्रवाह पथके समान स्थलभागको ढक लेनेवाले, धारावाहिक रूपसे जलके प्रवाहित होनेपर, पशुकुल से मुखरित वनविटपके नीचे वे मुनि रहते हैं और विषयों का नाश करते हैं। जिसके कन्दल ( अंकुर / केश ) गल चुके हैं, ऐसे मस्तक प्रदेशमें ओसके प्रसारसे युक्त शिशिरऋतुके प्राप्त होनेपर, जिसमें आकाश दिखाई देता है, ऐसे बाह्य शयनमें, धीर श्रमण निष्कम्प भावसे तमसे आच्छादित दिशाओंवाली रात्रि व्यतीत करते हैं। हिम (शीत) ऋतुके चले जानेपर और ग्रीष्म ऋतुके आगमनपर पहाड़ोंके शिखरोंपर विराजमान वे सत् ध्यानमें रत रहते हैं । सतानेवाली रविकिरणों की आगको सुविशुद्ध मतिवाले वे मुनि सहन करते हैं। विषयोंको जीतनेवाले इस प्रकारकी साधनाका पालन कर राजाजनोंको सन्तुष्ट करनेवाले सगर अपने पुत्रोंके साथ, पापका नाश करनेवाले निर्वाणको प्राप्त हुए । यह सुनकर कि पिताने कर्मोंका नाश कर दिया है, ( यह सोचकर ) अपने १८. १. A P विज्जुज्जलिए । २. AP संपिदिय ; K संविहिय but gloss संपिहित । ३. AP मगरवं । ४. AP दरसि । ५. A गिभागमणे । ६. A रई । ७. A गई । ८. AP अपमेयवयं । ९. A वरदत्तयहो; P वरपत्तयहो । २० www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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