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४७. १४. ७]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित चउवरिसई गलियई छम्मत्थहु णायरुक्खतलि मुणियपयत्थहु । कत्तियमासि विसुद्धहि बीयहि दिवसक्खइ गिल्वाणपगीयहि । लोयालोयपलोयणदीवउ
जायउ देवहु अप्पसहावउ । केवलणाणु सो जि लइ भण्णइ अण्णे जीवहु कहिं परमुण्णइ । जं बुद्धे सुण्ण जि पयासिउं जं विप्पेण बंभु णिहेसिउं। जं कउँलें अंबरु आहासिउं जं सइवेण सिवत्तु समासिउं । जं केविलें णिकिरिउं णिउत्तर णिग्गुणु णिच्चविसुधु अकेत्तउं । जं सुरगुरुणा णत्थि पउत्तउं जं अणंतु अच्छइ अविहत्तउं । तं खं देवे सुसिरु विसिट्टउ अप्पाणाउ विहिण्णउं दिट्ठउ । पत्ता-एयाणेयविवाइणा पुर्पदंतजिणजोइणा ।।
जेउं कुसुमपिसकयं हि णिहियं तेलोकयं ॥१३।।
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इंदेण जलणेण वरुणेण पवणेण । फणिणा कुबेरेण चंदेण सूरेण । दसदिसिहिं आएण सुरवरणिहारण । थोत्तं पढ़तेण थुर जिणवरो तेण । तुहुं धोयरइरेणु __ तुहुँ कामदुहघेणु । तुहं बंधु हयदप्पु तह माय तुहं बप्पु ।
जे दुह पाविट्ठ णिकिट्ट जेड धिट्ठ। आश्चर्य उत्पन्न हुए। जब चार वर्षे बीत गये, तो नागवृक्षके नीचे, पदार्थोंको जाननेवाले छद्मस्थ देवको कार्तिक मासकी देवोंके द्वारा प्रगीत द्वितीयाके दिनका अन्त होनेपर लोकालोकके अवलोकनका दीप आत्मस्वभाव प्राप्त हो गया। लो, उसीको केवलज्ञान कहा जाता है, किसी दूसरे ज्ञानके द्वारा परम उन्नति कहाँ ? जिसे बुद्धने शून्य प्रकाशित किया है, जिसे ब्राह्मणने ब्रह्मके रूप में विशेष कथन किया है, जिस कोलने ( मीमांसक ) स्वर्ग कहा है, जिसे शैवने शिवत्व कहा है, जिसे कपिल ( सांख्य ) ने निष्क्रिय, निर्गुण, नित्य विशुद्ध और अकर्ता कहा है, जिसे चार्वाकने नास्ति (नहीं है) कहा है, और जो अनन्त और अविभक्त (अखण्डित) है, देवने उस अन्तःशून्य विशिष्ट अपनेको पृथक् करके देख लिया।
पत्ता-एकानेक विवादी पुष्पदन्त जिनयोगीने ( इस प्रकार ) सारे संसारको कामरूपी पिशाचको जीतनेके लिए रास्तेपर लगा दिया ॥१३॥
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इन्द्र, अग्नि, वरुण, पवन, नागराज, कुबेर, चन्द्र, सूर्य और दसों दिशाओंसे आये सुरवरसमूहने स्तोत्र पढ़ते हुए जिनवरकी स्तुति की-"तुमने रतिरूपी रेणुको धो लिया है, तुम कामरूपी धनु हो, तुम हतदर्प बन्धु हो, तुम मां हो, तुम बाप हो। जो दुष्ट, पापिष्ठ, निकृष्ट, जड़ और ढीठ
४. AP कवलें । ५. A संखें । ६. P अक्कत्त। ७. A अप्पाणाउ विभिण्णउं; P अप्पसहावें जाएं।
८. AP पुप्फयंत । ९. P पहि णीयं । १४. १. P adds after This : जमदिसिकुमारेण; णेरहयभावेण । २. P जण घेछ।
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