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________________ - २७० महापुराण [ ५४. १८.१ १८ दुवई-एव भणेवि धीरु विसविसमविसण्णवणिसियअसिवरं ॥ अरिकरिकुंभकलियधवलुज्जलमोत्तियपंतिदंतुरं ॥ थक्कउ करयलेण उग्गामिवि ता सिरिरमणे णयलि भामिवि । मुक्कु चक्कु ढुक्कउ रिउकंठहु णावेइ अत्थसिहरि उवकंठहु । जाइवि दिणयरबिंबु णिमण्णउं लोहियलित्तउं लोहियवण्णउं । ससयणसडयणदिण्णसुहेलिहि फुल्लु णाई हरिसाहसवेल्लिहि । हसियपुसियपरणरवइरायहु पडिउ सीसु तारयणरणाहहु । खग्गें वसिकिउ लोउ असेसु वि मागहु वरतणु जित्तु पहासु वि । जिह महि सिद्धी अद्ध तिविठ्ठहु तिह हूई णिवैरिद्धि दुविठ्ठहु । उत्तंगत्ते धणु सो सत्तरि जीविउं वरिसलक्ख बाहत्तरि । पावें पाविउ सत्तमु महियलु तहिं अवसरि णिर्यमणि चिंतइ बलु । जहिं पडिकेसउ तहिं गउ केसव काले णडियउ णिवडइ वासवु । एम भणेप्पिणु पासि तिगुत्तहु वर्ड लइयउं समत्थु समचित्तहु । बहुरिसिवंद समउ समाहिउ केवलणाणसिरीइ पेसाहिउ । इस प्रकार कहकर वह धीर विषके समान विषम जलवाले, समुद्र के समान पेनो और शत्रुगजोंसे स्खलित धवल उज्ज्वल मोतियोंकी पंक्तिकी दांतोंवाली तलवार हाथमें उठाकर स्थित हो गया। इतने में नारायणने आकाशमें घुमाकर चक्र छोड़ा। वह शत्रुकण्ठपर इस प्रकार पहुंचा, मानो जैसे अस्ताचलके निकट जाकर दिनकरका बिम्ब निमग्न हो गया हो, लोहित ( लालिमा और रक्त ) से लिप्त लाल-लाल रंगका। जैसे वह स्वकीय जनरूपी भ्रमरोंको सुख देनेवाली नारायणके साहसरूपी लताका फूल हो, जिसने शत्रुराजाओंका उपहास और नाश किया है, ऐसे तारक राजाका सिर गिर पड़ा। नारायणने तलवारसे अशेष लोगोंको अपने वशमें कर लिया, उसने मागध, वरतणु और प्रभासको भी जीत लिया। जिस प्रकार त्रिपृष्ठके लिए आधी धरती सिद्ध हुई थी, उतनी ही नृप ऋद्धि द्विपृष्ठकी भी हुई। ऊंचाईमें वह सत्तर धनुष था और उसका जीवन बहत्तर लाख वर्षका था। पापसे उसे सातवें नरक जाना पड़ा। उस अवसर बलभद्र अपने में विचार करते हैं कि जहाँ नारायण गया, वहीं प्रतिनारायण गया। कालसे प्रतारित इन्द्रका भी पतन होता है। यह कहकर उसने समचित्त त्रिगुप्त मुनिके पास समर्थ व्रत ग्रहण कर लिया । बहुत-से मुनिसमूहके साथ सावधान वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीसे प्रसाधित हो गया। १८. १. AP°गलिय । २. A णं रवि अत्थं । ३. A णिवण्णउ । ४. P हसिउ पुसियं । ५. A पुसिउ । ६. A णिव झत्ति दुविट्ठहु । ७. AP उत्तुंगत्तें । ८. AP चितइ णियमणि बलु। ९. AP वउ । १०. A समत्तु णियचित्तहु । ११. AP°रिसिविंदहिं । १२. P पहासिउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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