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________________ अनुवादक का निवेदन महाकवि पुष्पदन्तके महापुराणके पहले खण्डका अनुवाद 'नाभेयचरिउ'के नामसे दो खण्डोंमें प्रकाशित हो चुका है, उसी प्रकाशन शृंखलाकी यह दूसरी कड़ी है जिसमें ३८वीं सन्धिसे लेकर ६७वीं सन्धि तकका अंश है । इस अंशको महत्ता इस तथ्यमें है कि इसमें अधिकतर तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवोंके चरित आ गये हैं। यह महापुराण -श्रमण संस्कृतिके ऐतिहासिक विकास और मूल प्रवृत्तियों को समझनेके लिए एक काव्यात्मक दस्तावेज है। समकालीन बृहत्तर भारतीय संस्कृतिकी दूसरी धाराओंके आलोचनात्मक अध्ययनके लिए इसका महत्त्व निर्विवाद है । अपभ्रंश भाषा और पद्धडियाबन्धमें होने के कारण, इसका महत्त्व अकूत है । महापुराणको भाषा और शैली नयी है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं और उनके साहित्यके वैज्ञानिक अध्ययनको दृष्टिसे इसकी उपादेयताका जब सम्पूर्ण मूल्यांकन होगा, तब अब तककी अध्ययन दृष्टि और उसके परिणामोंमें आमूल क्रान्ति होगी। लेकिन इस समय अध्ययनकी जो स्थितियां हैं, अवसरवाद ज्ञानके क्षेत्रमें जैसी कलाबाजियाँ दिखा रहा है उन्हें देखते हए निकट भविष्यमें यह मूल्यांकन हो सकेगा, इसकी न तो आशा है और न सम्भावना, फिर भी निराश इसलिए नहीं है कि संसार क्षणभंगुर है, उसमें एक सी स्थिति कभी नहीं रहती, कभी न कभी स्थिति बदलेगी और अध्येता सही सन्दर्भमें इस काममें लगेंगे। मैं इसे दुहराना आवश्यक समझता हूँ कि संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंशसे आधुनिक भारतीय आर्य और आर्येतर भाषा तक पहुँचने के लिए हमें भारतीय भाषा ( भारती ) को एक प्रवाहके रूपमें देखना होगा, जो बोलचालके स्तरपर निरन्तर गतिशील रहा है । विभिन्न भाषाओं में जो साहित्य उपलब्ध हैं, वे धाराके बाँध हैं, बांध और धारा में फर्क है; बाँधसे धाराकी गति नहीं रुकती। अपने समय और क्षेत्र की दृष्टिसे ये बांध अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु उनको धारा जोड़े रहती है। अतः वैज्ञानिक अध्ययनकी प्रक्रिया ही भाषा प्रवाहके स्थायी और गतिशील तत्त्वोंका सही मूल्यांकन कर सकती है। २०वीं सदीका आठवां दशक ( १९७०-८०) अपभ्रंशभाषा और साहित्यके विचारसे सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण दशक है क्योंकि उसमें इसके अधिकांश प्रेरक, आश्रयदाता, शोधकर्ता और विद्वान् इस दुनियासे उठ गये। महापुराण के अंश 'नाभेयचरिउ' के अनुवादके समय अपभ्रंश साहित्यके मनीषी डॉ. पी. एल. वैद्य भी अब हमारे बीच नहीं हैं। पहले खण्डकी भमिकामें, १९७४ में, मत्यसेजपर पडे-पडे उन्होंने लिए पुष्पदन्तकी तीसरी रचना 'महापुराण' विशाल ग्रन्थ है, जिसके तीन खण्डोंके सम्पादनमें मुझे दस सालसे भी अधिक (१९३२-४१) का समय लगा। यह उसका डॉ. देवेन्द्र कुमार जैनके हिन्दी अनुवादका दूसरा संस्करण है, जो भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है। मैं विशेष रूपसे सुखका अनुभव करता हूँ कि उक्त संस्थाने इसका प्रकाशन किया, और विद्वानों को इसे उपलब्ध कराया। अपभ्रंश साहित्यके प्रेमी भारतीय ज्ञानपीठके प्रति अत्यन्त अनुगृहीत हैं। मैंने आशा की थी कि इस युगनिर्माता प्रकाशनका युवा शोध-विद्वान् अध्ययन करेंगे।" सन्तोष भी है कि उनके जीवनकालमें ही महापुराणका पहला खण्ड हिन्दी अनुवाद और उनकी भूमिकाके साथ प्रकाशित हो गया था। चूंकि यह प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने हाथमें लिया है, इसलिए जीवनकी आखिरी सांस तक उन्हें विश्वास रहा होगा कि शेष खण्ड भी उसी आनबानसे प्रकाशित होंगे। विश्वास है कि मत्युसे जूझते हुए स्व. डॉ. वैद्यने जो अपील की थी अपभ्रशके अध्येता उसपर ध्यान देंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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