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________________ -६०.१२.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तहिं जि चंडकोसिउ दियसारउ सोमसिरीमणणयणपियारउ । पउरणिबद्धउ णिरु दुव्वारउ अण्णहि दिणि तहु आयहु वारउ । विप्पेण वि अणं उरि णि वे सिउ पुत्तु मंडकोसिउ लहु पेसिउ । भयहि चालिउ पासि णिसीह ललललंतमहणिग्गयजीहह । घत्ता-दंडपाणि अवराइउ रक्खसु संमुहुं धाइउ ॥ ढंढ रेहिं महिरंधइ बडुंवर चित्तु तमंधइ ॥११॥ १२ तहिं अच्छि उ अजयरु तें गिलियउ । पुणु सो वलिवि ण जणणिहि मिलियउ । तेण देव तुहु विवरि ण घिपहि एत्थु जि जीवोवाउ वियप्पहि । पभणइ मइसायरु महि दिज्जइ पोयणणाहु अरु इह किजइ । ता अहिसिंचिवि मेइणिसासणि कंचणजवखु णिहिउ सिंहासणि । सो किंकरजणेण पणविज्जद सो चलचामरेहिं विजिजइ । जीय देव आएसु भणिजइ तासु पुरउ णञ्चिज्जइ गिज्जइ । गयणविलंबमाणधयमालउ णरवइ गंपि पइट्ट जिणालउ । झायइ अधुवु असरणु तिवणु जिणपडिबिंबणि हिय णिञ्चलमणु । ता सत्तमउ दियहु संपत्तउ जो जणेण पोयणवइ उत्तउ। हुआ। जो कहा गया था, वह प्रतिदिन दिया जाने लगा। वहाँ चण्डकौशिक नामका ब्राह्मण श्रेष्ठ था जो अपनी पत्नी सोमश्रोके मन और नेत्रोंके लिए प्रिय था। एक दिन नगरप्रवरके द्वारा निबद्ध ( निश्चित को गयो ) दुनिवार उसकी बारी आ गयी। ब्राह्मगने गाड़ीके ऊपर अपने पुत्र मण्डकौशिकको बैठाया और शोघ्र उसे भेजा। जिसके मुखसे लपलपाती हुई जीभ निकल रही है ऐसे राजाके पास भूत उसे ले गये। घत्ता-तब दण्डपाणि अपराजित नामका राक्षस सामने दौड़ा। दूसरे राक्षसोंने उस बटुकको एक अन्धे महीरन्ध्रमें फेंक दिया ॥११॥ १२ वहां एक अजगर था। उसने उसे खा लिया। वह ब्राह्मण दुबारा आकर अपनी माँसे नहीं मिला। इसलिए हे देव, तुम अपनेको विवरमें मत डालो, यहींपर जीनेके उपायको सोचिए । मतिसागर मन्त्री कहता है-धरती दे दी जाये और पोदनपुरका दूसरा राजा बना दिया जाये। तब स्वर्णयक्षको धरतीके शासकके रूपमें अभिषेक कर सिंहासनपर स्थापित कर दिया गया। उसको किंकरजनोंके द्वारा प्रणाम किया जाता है, चंचल चमरोंके द्वारा उसे हवा की जाती है, "हे देव, आदेश दीजिए" यह कहा जाता है। उसके सम्मख गाया और नाचा जाता है। जिसकी ध्वजमाला आकाशसे लगी हुई है ऐसे जिनमन्दिर में जाकर वह राजा बैठ गया। वह अनित्य और अशरण त्रिभुवनका ध्यान करता है। उसका मन जिनप्रतिमामें लोन और निश्चित था। इतने में ६. P चंडकासिउ । ७. AT अणु उपरि । ८. P ढंढुरेहिं । ९. AP बडुयउ । १२.१. A घेपहि; P धेपिहि। २. AP अबर वर । ३. AP सीहासणि। ४. P वज्जिज्जइ । ५. AP अधुउ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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