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________________ ३६६ महापुराण [६०. १०.६पइवि महाणससस्थणिओएं ढोइउ पहुहि रसायणपाएं तूंसिवि तहु मुहकमलु णिरिक्खिउ चारु चारु पभणंते भक्खि । माणुसमासहु राउ पइद्धउ अवरहिं दिणि सूर्योरु जि खदउ । साहियरक्खसविज्जाणियरउ । णरवरिंदु हूयउ रयणियरउ । तहिं अवसरि पुटिवल्लउ णि सियरु । तह सरीरि संठित भीसणयरु। कुलिसकढिणणक्खेहिं वियारइ णासंतइं जंतई पञ्चारइ । बाहिवि वाहिवि पुणु अवहेरिउ चंगउं हलं चिरु मक्खइ मारिउ । अप्पसयत्थियाइं तमवंतई एगहि कहिं महुं जाहु जियंतई। घत्ता-पंडुरमंदिरपयडइ ता पट्टणि कारयडइ ।। सयलु लोउ थिउ पइसिवि तहु रयणियरहु णासिवि ।।१०॥ २ ता सीह उह पमेल्लिवि णिग्गउ घेडहड त्ति णरलोहिउ घोट्टइ चरयरंत तणुचम्मई फाडइ रायणिसाडचरणजुयलग्गइ चस्यसयडु मणुएं संजुत्तउ जइयहुं तं आयेउ ण णिरिक्खहि कुंभकारकडु पुरवरु घुटउं णिवरक्खसु जणपच्छइ लग्गउ । कडेयड त्ति हडुई दलवइ । णाइं णि णाई अच्छोडइ। ता वुत्तउ पयाइ भयभग्गइ। दियांह दियहि लइ तुज्झु णिउत्तउ । तइयतुं तुहुं पुणु सव्वई भक्खहि । णिच्चमेव दिज्जइ उवइट्टउं । उनके लिए प्रेत-मांस भी मंगल होता है। पाकशास्त्रके विधानके अनुसार पकाकर रसोइयेने उसे दिया। राजाने सन्तुष्ट होकर उसका मुखकमल देखा, और 'बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर' कहकर उसका खा लिया। उसका प्रेम मांसभक्षणमें बढ़ गया और दूसरे दिन उसने रसोइयेको खा लिया। जिसने राक्षस-विद्या-समूह सिद्ध कर लिया है ऐसा वह नरवर राक्षस हो गया। उस अवसरपर पहलेका निशाचर ( भैंसेका जीव) उसके शरीरमें प्रविष्ट हो गया। वह अपने कूलिशके समान कठोर नखों से विदीर्ण करता और भागते हुए लोगोंको उलाहना देता। बुला-बुलाकर उनका तिरस्कार करता। भला मैं बहुत समयसे भूख से पीड़ित हूँ, स्वार्थी और अज्ञानसे भरे हुए तुम लोग मुझसे (बचकर) जीते जो कहाँ जाते हो।" घत्ता-जो सफेद घरोंसे प्रगट है, ऐसे उस कारकट-नगरमें उस राक्षस राजासे भागकर प्रवेश कर रहने लगे ॥१०॥ ११ तब वह नृपराक्षस सिंहपुरसे निकला और लोगों के पीछे लग गया। घड़-घड़ कर लोगोंका खून पीता और कड़कड़ करके हड्डियोंको चूर-चूर कर देता। शरीरके चमड़ेको चर-चर करके फाड़ देता और उसके जोड़ों को तोड़ डालता। राजाके दोनों पैरोंपर गिरते हुए भयभीत प्रजाने कहा-"तुम प्रतिदिन मनुष्य सहित एक गाड़ी भात निश्चित रूपसे लो, और जब तुम उसे आया हुआ न देखो, तब तुम सब लोगों को खा डालना।" इस प्रकार बह नगर कुम्भकारकट घोषित ३. AP रूसिवि । ४. AP सूयह नि। ११. १. AP घड़यडत्ति। २. AP कडयडत्ति। ३. AP च रयत्ति । ४. AP SMणाई। ५. AP आयउतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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