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________________ ३२६ ५ १० as मेह सुवण दिसग्गिणाय किंणर किंपुरिस महोरगाय संपत्त भूय भत्तिल्लभोव जय जय सामासुय जय अनंत जय जणणणिर्हणमय रहर सेउ महापुराण अंतरियरं जं महिसुरह रेहिं जं केण विउ दिट्ठ सुदूरु धणपुत्तकलत्तईं अहिलसंति संसार जि संपुंसंतु दिणि अच्छइ घरि वावारलीणु तु पुरिस अणिसु जग्गमाणु बाहिरतवेण पई अंतरंगु तवतायें पई ताविडं णियंगु धत्ता - जिणणा में भत्तिपणा में पावमा तरु भइ ॥ roat सह भव्वहं भावसुद्धि संपज्जइ ॥११॥ १२ मरु जलणिहि थणियासुरनिहाय । गंधव्व जक्ख रक्खस पिसाय | सयल विनंति जय देव देव । जय मिहिरमहा हिय गुणमहंत । जय सिव सास सिवलच्छि हेउ । [ ५८. ११.५ Jain Education International जं सुहुर्मु ण याणिउँ जगि परेहिं । तं पई पडिउँ तुहुं भावसूरु । भोयासइ तावस त करंति । संचरहि महामुणि चरिउं संतु । णिसि सोवइ जणु समदुक्खरीणु । दीस हि परिमुक्कपमायठाणु । रक्खउं णीसेसु वि मुइवि संगु । विवियउ पईं दुद्दमु अणंगु । सुरवरेन्द्र उसमें आये । ग्रह, तारा, नक्षत्र, सूर्य और चन्द्रमा भी, विद्युत, मेघ, यक्ष, दिग्गज, पवन, समुद्र, गरजता हुआ असुर-समूह, किन्नर, किपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और पिशाच और भक्तिभाव से भरे भूत वहाँ पहुँचे। सभी देव स्तुति करते हैं, 'हे देव ! आपकी जय हो । हे श्यामपुत्र, अनन्त, आपकी जय हो । सूर्यसे भी अधिक तेजवाले और गुणोंसे महान् आपकी जय हो । हे जन्म-मृत्यु के समुद्र के लिए सेतुके समान आपकी जय हो । हे शाश्वत मोक्षरूपी लक्ष्मीके कारण आपकी जय हो । घत्ता - भक्ति से प्रणम्य जिननामके द्वारा पापरूपी वृक्ष खण्डित हो जाता है और गर्वसे रहित समस्त भव्योंकी भावशुद्धि हो जाती है ॥ ११ ॥ १२ जो धरती और देव विमानोंसे अन्तर्हित है, जो सूक्ष्म है और जगमें दूसरोंके द्वारा नहीं जाना जाता, जो इतना दूर है कि किसीने नहीं देखा, उसे हे भावसूर्य, तुमने प्रकट कर दिया । तापस लोक धन, पुत्र और कलत्रकी इच्छा करते हैं और भोगकी आशासे तप करते हैं, लेकिन आप संसारका सम्मार्जन करते हुए चलते हैं । हे महामुनि, आप शान्त चारित्रका आचरण करते हैं । जन दिन में घर में व्यापार में लीन रहता है, और रात्रिमें श्रमके कष्टसे थककर सो जाता है । आप ऋषि हैं, आप दिनरात जागते रहते हैं और प्रमादके स्थानसे आप मुक्त दिखाई देते हैं । समस्त परिग्रहको छोड़कर आपने बाह्य तपसे अन्तरंगकी रक्षा की है । तपतापसे आपने अपने शरीरको तपाया है और आपने दुर्दम कामदेवका दमन किया है। ११. १. A भलिभाय । २. P° हिल । ३ AP जयलच्छि । ४. P महाभरु । ५. A भंजइ । ६. AP भव्वहं सव्वहं । १२. १. P सुहमु । २. A सद्गुरु । ३ A संफुसंतु । ४. AP महामुणि सच्चरितु । ५. A अहणिसि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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