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________________ ४३७ -६४.३.१० महाकवि पुष्पदन्त विरचित बंधिवि तित्थंकरणामकम्मु मउ उवरिमिल्लु ससिबिंबसोम्मु । पत्तउ पंचाणुत्तरविमाणु मुंजिवि तेत्तीसजलणिहिपमाणु । छम्मास परिट्ठिउ आउ जाम वइसवणहु कहइ सुरिंदु ताम । घत्ता-दीवि पहिल्लइ पविउलइ भरहि देसु कुमजंगलु ॥ गयउरि महिवइ तहिं वसइ सूरसेणु जेगमंगलु ॥२॥ कुरुकुलरुहुँ सिरिजयसिरिणिकेउ कासवगोत्तें भूसिउ सुतेउ । सिरिकंत कंत कमणीयरूय सुरखयरणियं बिणितिलयभूय । णरणाहहु सा वल्लहिय केव सुवियड्डहु वरकइवाणि जेव । एउहुं दोहं मि होही ण मंति जिणु कुंथु णाम केवलि कहति । करि पुरवरु घरु णदणवणाल। पुजिजइ भत्तिइ सामिसालु । तं णिसुणिवि धणएं तं विचित्त किउ जयरु कणयमाणिक्कदित्तु । पवणुद्धयपहकप्पूरपंसु सरसरिनीरंतररमियहंसु। पासायचूलियालिहियमेहु गय[ग्गयसुरहियधूमरेहु । घत्ता-सुहं सुत्ती रयणिहि सयणि बालहंसगेयंगामिणि ॥ पच्छिमजामइ सोलह वि पेच्छइ सिविणय सामिणि ॥ ३॥ १० ग्रहण नहीं करते। तीर्थंकर नामक प्रकृतिका बन्ध कर वे मर गये तथा वे ऊपर चन्द्रबिम्बके समान सौम्य पांचवें अनुत्तर विमानमें पहुंचे। वहां तैंतीस सागर प्रमाण आयु भोगते हुए जब छह माह आयु शेष रह गयी, तो इन्द्र कुबेरसे कहता है । -पहले द्वीप जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें कुरुजांगल देश है। वहां हस्तिनापुरमें जगमंगल राजा सूरसेन राजा है ॥२॥ कुरुकुलका अंकुर तथा विजयश्रीका घर तेजस्वी वह कश्यपगोत्रसे विभूषित था। उसकी कान्ता श्रीकान्ता अत्यन्त कमनीय रूपवाली और सुर विद्याधर-स्त्रियोंमें तिलकस्वरूप थी। राजाके लिए वह वैसी ही प्रिया थी जैसे सुविदग्धोंके लिए वरकविकी वाणी प्रिय होती है। इन दोनोंके जिन कुन्थुके नामसे उत्पन्न होंगे, इसमें भ्रान्ति नहीं है, ऐसा केवली कहते हैं । तुम नगर, घर और नन्दनवनकी रचना करो और भक्तिसे स्वामी श्रेष्ठकी पूजा करो। यह सुनकर कुबेरने स्वर्ण और माणिक्योंसे प्रदीप्त विचित्र नगरकी रचना की। जिसमें हवासे पथमें कपूरको धूल उड़ती है, जिसके सर-नदीके नीरके भीतर हंस रमण करते हैं, जिसके प्रासादोंके शिखर मेघोंको छूते हैं, जहां सुरभित धूम्र रेखाएं आकाश तक उठी हुई हैं। __ घत्ता-शय्यातलपर सुखसे सोयी हुई बालहंसगामिनी स्वामिनी श्रीकान्ता रात्रिके अन्तिम प्रहरमें सोलह स्वप्न देखती है ।।३।। ५. AP जयमंगलु। ३. १. A°कुलरुहजयसिरिसिरि । २. A सुकेउ । ३. AP णरणाहहु तहु वल्लहिय । ४. AP घर । ५. A पवणुद्धयपंकयरयविमीसु; P पवणुद्धयपहकप्पूरफंसु । ६. AP सरिसर । ७. A गयणग्गय । ८. P धम्मरेड । ९. A सुहसुत्ती। १०.Pगइगामिणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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