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महापुराण
[५५. ५. ६आसंदी हरिणरायधरिय
अमरिंदवसहि पहपरियरिय । णाइणिगिजंतगेयमुहलु
णाइंदहु केरउं सउहयलु । मणिरासि सिहाहि फुरंतु सिहि सिविणोलि णिहालिय दिण्णदिहि । घत्ता-सा सीमंतिणिय पीणत्थणिय दसणु दइयहु भासइ ।।
देउ णराहिवइ पडिबुद्धमइ तं फलु ताहि समासइ ॥५॥
पयपुंडरीयजुयणवियसुरु अरहंतु अणंतु तिलोयगुरु । मयरद्धयधयणिल्लूरणउ
परमेसरि होसइ तुह तणउ । इंदाएसें णिम्मच्छरउ
एत्थंतरि आयउ अच्छरउ । जयदेविहि देहु पसंसियउ गब्भासयदोसु विहंसियउ । छम्मासु हेमधाराधरहिं
वरिसिउ जक्खहिं णं जलहरहिं । जे?हुं मासहु तमदसमिदिणि उत्तरभद्दवयइ हिम किरणि । रयणेहिं सुरेहिं संथुयचरिउ करिरूवें गम्भि समोयरिउ । णिहिकैलससविक पयडियउं णवमास पुणु वि वसु णिवडियउं । जइयतुं सायरसम तीस गय मिच्छतं दूसिय सयल पय । पल्लंतपणट्ठइ धम्मि वरि
णिव्वुइ बारहमइ तित्थयरि। कंचणचूलालिहियंबुहरि
तइयतुं कयवम्महु तणइ घरि । सिंहके द्वारा धारण की गयी बैठक (सिंहासन ), प्रभासे आलोकित देवविमान, नागिनीके द्वारा गाये गये गीतसे मुखर नागका भवनतल, रत्नराशि और ज्वालाओंसे जलती हुई आग। इस प्रकार भाग्यशाली स्वप्नावली देखी।
घता-पीनस्तनोंवाली वह सीमन्तिनी अपने पतिसे कहती है। प्रतिबुद्धमति नरराज देव उसका फल उसे बताते हैं ।।५।।
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जिनके चरणकमलोंमें देव नमन करते हैं ऐसा अरहन्त अनन्त त्रिलोकगुरु कामदेवका नाश करनेवाला पुत्र, हे परमेश्वरी, तुम्हारे उत्पन्न होगा। इसी बीच इन्द्रके आदेशसे मत्सरसे रहित अप्सराएं वहाँ आयीं। उन्होंने जयादेवीकी प्रशंसा की और गर्भाशयके दोषको दूर किया। जलधरोंकी भांति यक्षोंने छह माह तक स्वर्णमेघोंकी वर्षा की। ज्येष्ठ माहके शुक्ल पक्षको दसमीके दिन, उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमें चन्द्रमाके रहनेपर, रत्नों और देवों द्वारा संस्तुत चरित्र, देव हाथीके रूप में गर्भमें अवतरित हुए। (कुबेरने) निधिकलशोंमें अपना विक्रम प्रकट किया और नौ माह तक और धनकी वर्षा हुई । जब बारहवें तीर्थंकरके निर्वाण कर लेनेपर तीस सागर,प्रमाण समय बीत गया तब समस्त प्रजा मिथ्यात्वसे दूषित हो गयी। एक पल्य पर्यन्त धर्मके नष्ट होनेपर कृतवर्माके स्वर्णशिखरोंसे मेघोंको छूनेवाले घरमें तब
५. P ताउ । ६.१. AP°णमियं । २. A°कलसविमुक्कउ । ३. A धम्मवरि ।
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