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________________ -५४. ६. १६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २५९ दुवई-बंधुविओयसोयमलिणाणण पइपरिहवविवेइया ।। तेण णिवेण धरिय गुणमंजरि गुणमहुयरणिसेविया ।। इह वरभरहखेत्ति विक्खायउ खत्तियधम्मधुरंधरु जायउ। मित्तु सुसेणहु संतोसियमणु राउ महापुरि मारुयसंदणु । णिसुणेप्पिणु णियइट्ठ पलाणउ हिमहयकमलसरु व विदाणउ । घणरणामहु वसुमइ देप्पिणु कोहु लोहु मउ मोहु मुएप्पिणु । सुन्वयजिणह पासि वउ लेप्पिणु मुउ कालें संणासु करेप्पिणु । प्राणयकप्पि सक सो हूयउ । वीससमुद्दजीवि वररूवउ । तासु जि गुरुहि पासि उवसंतें दुद्धरु संजमभारु वहंतें। बारहविहतवतावणझीणें बद्ध णियाणु अणेण सुसेणे । मेरुतुंगमाणुण्णइ ढालिय जण मज्झु माणिणि उहालिय । जइ तवतरुवरहलू पाएँसमि तो तं पुरिमैजम्मि मारेसमि । एंव सरंतु सरंतु जि णिट्ठिउ सकलुसमइ संलेहणि संठिउ । वरवंदारयवंदविणूयउ 'तेत्थु जि सम्गि सो वि संभूयउ । घत्ता-रमणीयहि मंदरमेहलहिणीलिरुम्मिगिरिकंदरि ॥ गयणयलि सयंभूरमणजलि ते रमंति सरिसरवरि ॥६॥ mmmmmmmmmmmmmm बन्धु-वियोगके शोकसे मलिनमुखो और पतिके पराभवसे कम्पित तथा गुणरूपी मधुकरोंसे सेवित गुणमंजरीको उस विन्ध्यशक्ति राजाने पकड़ लिया। इस श्रेष्ठ भरत क्षेत्रमें क्षात्रधर्ममें धुरन्धर और विख्यात, सन्तोषित मन, सुषेणका मित्र, महापुरीका राजा मारुतस्यन्दन था। वह अपने मित्रका पलायन सुनकर हिमसे आहत कमल सरोवरके समान खिन्न हो गया। घनरथ नामक अपने पुत्रको धरती देकर क्रोध, लोभ, मद, मोहको छोड़कर, सुव्रत जिनके पास व्रत ग्रहण कर, समय आनेपर संन्यासके साथ मरकर, वह प्राणत स्वर्गमें इन्द्र हुआ । सुन्दर रूपवाला बोस सागर पर्यन्त जीनेवाला। उसीके गुरुके पास उपशान्तभाव धारण करते हुए, कठोर संयमभावका आचरण करते हुए बारह प्रकारके तप-तापसे अत्यन्त क्षीण इस सुषेणने यह निदान बांधा कि "जिसने मेरी सुमेरुपर्वतके समान ऊंचे मानवाली उन्नतिका पतन किया और पत्नीका अपहरण किया, यदि मैं तपरूपी वृक्षका फल पाऊं, तो मैं अगले जन्ममें उसको मारूंगा।" यह स्मरण करते-करते वह निष्ठामें लग गया। सकलुषमति वह संलेखनामें स्थित हो गया। श्रेष्ठ देवोंके समूहके द्वारा संस्तुत वह भी उसी स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। घत्ता-रमणीय मन्दराचलको मेखला और नीलरुक्मी पर्वतकी कन्दरा, आकाशतल, स्वयम्भूरमण समुद्रके जल और सरित सरोवरमें वे दोनों क्रीड़ा करने लगे ॥६॥ ६. १. AP इय । २. AP पाणयं । ३. AP सग्गि । ४. AP पावेसमि । ५. A पुरिसु । ६. AP तेत्थु वि सो सम्गि संभूयउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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