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________________ महापुराण [३८. ६.४विमलगुणाहरणंकियदेहउ एउ भरह णिसुणइ पई जेहउ । कमलगंधु घेप्पेइ सारंगें णउ सालूरे णीसारंगें। गमणलील जा कय सारंगें सा किं णासिज्जइ सारंगें। सज्जणदूसियदूसणवसणे सुइकित्ति किं हम्मइ पिसुण । कहमि कम्वु वम्महसंघारणु अजियपुराणु भवण्णवतारणु । घत्ता-जिणगणरयणावलिवेयडिउ सहसवण्णसमजल ।। आहासइ गणहरु सेणियहु करहु कण्णि कहकोंडलु ।।६।। सरपंकयरयरत्तविदेहइ जंबूदीवहु पुत्वविदेहइ। सीयहि दाहिणेकूलि रवण्णउ वच्छउ णाम देसु वित्थिण्णउ । सहलारामहिं गामहिं घोसहिं दहियविरोलणमंथणिघोसहिं । पविउलपककलवकेयारहिं कणिसु चुणंतहिं जंपिरकीरहिं । घणकणगुरुभरणवियहिं धण हिं हंसहि णवबंभहरणिसण्णहिं । चंपयदेवदारुसाहारहिं कुसुमालीणभमरझंकाहिं । णचिरमुक्कमोरकेकारहिं पबलबलालवसह ढेकारहिं । महिसमेसजुज्झुच्छवमिलियहिं जो सोहइ''गंदंतहिं हलियहिं । हे भरत, जिसने शरीर पर विमल गुणरूपी आभरण धारण किये हैं ऐसा तुम जैसा व्यक्ति उसे सुनता है, कमलको गन्ध भ्रमरके द्वारा ग्रहण की जाती है सारहोन मेंढकके द्वारा नहीं । हरिणके द्वारा जो गमनलीला को जाती है, क्या वह धनुषके द्वारा नष्ट की जा सकती है। जिनका स्वभाव सज्जनोंको दूषित करना है ऐसे दुष्टके द्वारा क्या सुकविकी कीर्ति नष्ट की जा सकती है। मैं कामदेवका संहार करनेवाले और संसार रूपी समुद्रसे सन्तरण करनेवाले अजित पुराण काव्यको कहता है __ घत्ता-गौतम गणधर कहते हैं, "हे गौतम, तुम जिनवरके गुणोंकी रत्नावलीसे विड़ित शब्दरूपी स्वर्णसे समुज्ज्वल यह कथा रूपी कुण्डल अपने कानोंमें धारण करो" ॥६॥ जहां सरोवरोंके कमलरजसे पक्षियोंके शरीर धूसरित हैं जम्बूद्वीपके ऐसे पूर्व विदेहमें, सीता नदीके दक्षिण तट पर, सुन्दर वत्स नामका विशाल देश है, जो फल सहित उद्यानों, ग्रामों, दही बिलोनेकी मथानियोंके घोषवाले गोकुलों, पके हुए प्रचुर धान्यके खेतों, कण चुगते बोलते हुए शुकों, सघन दानोंसे भरे हुए नये धान्यों, नवकमलों पर बैठे हुए हंसों, चम्पक देवदारु और आम्र वृक्षों, पुष्पोंमें लीन भ्रमरोंकी झंकारों, नृत्य करते हुए मुक्त मयूरोंकी ध्वनियों, प्रबल बलयुक्त बैलोंके ढेक्कार शब्दों तथा भैंसाओं और मेढ़ोंक युद्धोत्सवमें इकट्ठे हुए प्रसन्न हलवाहोंसे शोभित है। ६. १. P एह । २. AP घिप्पइ। ३. AP वड्ढियसज्जणदूसण । ४. P सुकय । ५. AP °सुवण्णु । ६. AP कहकुंडलु । ७. १. उत्तर; K उत्तर but corrects it to दाहिण । २. A° पिक्क । ३. AP' कलम । ४. AP अण्णहिं; K धण्णहिं and gloss धान्यैः । ५. A देवदार । ६. AP कुसुमालीण । ७. AP णच्चिरमोरमुक्क। ८. P केक्कारहिं । ९. AP महिसहि मेसहिं जुज्झिवि मिलियहि । १०. P omits जो। ११. P adds णिरु after णंदंतहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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