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________________ -३८. १८.९ ] महाकवि पुष्पवम्त विरचित कह व कह व मड़ई इच्छाविउ कण्णासहसहि पँहु परिणाविउ । सुसिरु तंति घणु पुक्खरु वज्जइ जहिं तुंबुरुणा सुसरउ गिजइ । जहिं ऊवसिरंभहि णञ्चिज्जइ अणवैमरसविसेसु संचिज्जइ । घत्ता-जहिं मंगलदम्वविहत्थियहिं उरघोलिरहारमणिहिं॥ आवंतिहिं जतिहिं सुललियहिं छेउ णत्थि सुररमणिहिं ॥१७॥ १८ जहिं उवमाणउ किं पि ण दिजइ तं उच्छउ मई किं वणिजइ । सम्वतित्थपरिपुण्णहिं कलसहिं मुणिवंयणहिं णं वियलियकलुसहिं । खीरतुसारतारणित्तारहिं । जित्तविलासिणिमोत्तियहारहिं। कोमलकिसलयछाइयवत्तहिं विसहरसरणरखयरुक्खित्तहिं । मंगलघोसविलासविसेसहिं तियसिंदहिं मिलेवि पुहईसहिं । किउ रज्जाहिसेउ सूर्यसेवहु बधु णिलाडि पट्टु तहु देवहु । महि मुंजंतह पीणियभव्वहुं एक्कुणवीस लक्ख गय पुव्वहं । एक्कहिं दिणि णरणियरणिरंतरि । अच्छंतें अत्थाणब्भंतरि । वसुवइवसुमइकंताकतें रयणिहि गयणभाउ जोयंते । प्रकार बलपूर्वक इच्छा उत्पन्न करके प्रभुका एक हजार कन्याओंसे विवाह कर दिया गया जहां सुषिर, तन्त्री, धन और पुष्कर वाद्य बजाये जाते हैं और तुम्बिरके द्वारा सुसरस गान किया जाता है, जहां उर्वशी और रम्भाके द्वारा नत्य किया जाता है। इस प्रकार बिना नौवें रस (शान्त) के बिना रस विशेष संचित किया जाता है। पत्ता-जहां, जिनके हाथमें मंगल द्रव्य हैं और वक्षपर हारमणि हिलडुल रहे हैं ऐसी आती जाती हुई सुन्दर सुर रमणियोंका अन्त नहीं है ।।१७।। जिसका कोई भी उपमान नहीं दिया जा सकता, ऐसे उस उत्सवका मेरे द्वारा क्या वर्णन किया जा सकता है ? मुनि वचनोंके समान कालुष्य (पाप-कलुषता) से रहित, क्षीरकी तरह हिमकणोंसे निरन्तर भरपूर, विलासिनियोंके मोतियोंके हारको जीतनेवाले, कोमल किसलयवाले, पत्तोंसे आच्छादित, नागों, देवों और मनुष्यों एवं विद्याधरोंके द्वारा उठाये गये, सब तीर्थोसे परिपूर्ण कलशोंसे, मंगलघोषों और विलासोंसे विशिष्ट, देवों देवेन्द्रों और पृथ्वीशोंने, लक्ष्मीके द्वारा सेवित देवका राज्याभिषेक किया और उनके ललाटपर पट्ट बांध दिया। भव्योंको प्रसन्न करनेवाले और धरतीका भोग करनेवाले उन्नीस लाख पूर्व समय बीत गया। एक दिन मनुष्य-समूहसे भरपूर दरबारके मध्य बैठे हुए धरती और लक्ष्मीके स्वामी रात्रिमें आकाश मार्गमें, ३. A मंडइ; P मडइ। ४. P सहु। ५. A P अणुवम'; T अणुवम but the meaning given is शान्तरसरहितः । १८. १. A P Q मुणि । २. P जिणिवि विला। ३. A कमलकिसलयच्छाइय'; P कमलहिं किसलय छाइयं । ४. A सुरसेवह; P सियसेवहु । ५. A एक्कुणलक्खवीस गय; P तयपंचास लक्ख गय । ६. P अच्छा जा अत्याण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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