SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ महापुराण [ ५६.५.३ जयसिरिरामाउक्कंठिएण घरसत्तमभूमिपरिट्ठिएण। जणविभयभावुप्पायणेण एक्कहिं वासरि णारायणेण । अवलोइउ चिंधचलंतमयरु पुरबाहिरि दूसावासणियरु । पुच्छिउ सेमंति भणु कासु सिमिक दीसइ भूसणरुइरहियतिमिरु । दुव्वसणविसेसकयंतएण तं णिसुणिवि वुत्तु महंतएण । रमणीयएसपुराहिवेण मंडलियएं ससिसोमें णिवेण । भीएण देव परिहरिवि दप्पु महुणरणाहहु पेसियउ कप्पु । मायंग तुरय मणि दिव्व ची कंकणकडिसुत्तयहारिहारु । असिकरकिंकररक्खिजमाणु ओहच्छइ एत्थु णिबद्धठाणु । घत्ता-विहसंतें भणिउं अणते पालियचाउठवण्णहु ।। जीवंतहु महु पेक्खंतहु जाइ कप्पु किं अण्णहु ।।५।। दुवई-जिम लंगलि गरिंदु जिम पुणु हउँ पुह विहि अवरु को पहू ।। __ णिच्छउ घिवमि कुद्धकालाणणि पिक्कउ महु व सो महू ।। ता मंते वुत्तउ भो कुमार किं गजसि किर परतत्तियार। महुराउ भणहि महुघोट्ट काई हा ण वियाणहि तुहुं तहु कयाई । ५ भयवंत णरेसर णिहिल वहिय महि जेण तिखंड बलेण गहिय । और गरुड़ सेनाके अधिपति थे। उन दोनोंका साहस अचिन्तनीय था। विजय-श्रीरूपी रमणीके लिए उत्कण्ठित घरकी सातवों भूमिपर बैठे हुए, जिसे लोगोंमें विस्मयका भाव उत्पन्न करनेकी इच्छा हुई है, ऐसे नारायणने एक दिन नगरके बाहर जिसमें ध्वजसमूह हिल रहा है, ऐसा तम्बुओंका समूह देखा। उसने अपने मन्त्रीसे पूछा कि यह किसका शिविर है कि जो भूषणोंको कान्तिसे अन्धकार रहित है। यह सुनकर दुर्व्यसन विशेषके लिए यमके समान मन्त्रीने कहा कि रमणीक प्रदेशके अधिपति शशिसोम नामक भयभीत माण्डलीक राजाने हे देव, दर्प छोड़कर मधु राजाके लिए 'कर' भेजा है। गज, तुरग, मणि, दिव्य वस्त्र, कंकण, कटिसूत्र और सुन्दर हार । जिनके हाथों में तलवारें हैं, ऐसे अनुचरोंके द्वारा रक्षित वह शिविर अपना स्थान बनाकर ठहरा हुआ है। पत्ता-तब नारायणने हंसते हुए कहा-"चातुर्वर्ण्यका पालन करनेवाले मेरे जीवित रहते और देखते हुए क्या किसी दूसरेके लिए कर जा रहा है ? ॥५॥ जिस प्रकार हलधर राजा है और जिस प्रकार मैं राजा हूँ, उसी प्रकार पृथ्वीपर और कौन राजा है ? मैं निश्चय ही उस मधुको पके हुए मधुकी तरह क्रुद्ध कालके मुख में फेंक दूंगा।" इसपर मन्त्री बोला-"दूसरोंकी तृप्ति करनेवाले हे कुमार, आप क्यों गरजते हैं ? तुम राजा मधुको मधुका घुट क्यों कहते हो ? अफसोस है आप उसके किये हुएको नहीं जानते ? उसने मदवाले सारे ५.१. AP एक्कम्मि दियहि । २. A सुमंति । ३. AP रमणीयवेस । ४. A चारु । ५. A परिपालिय with q in the margin. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy