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________________ -५६.७.९ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित णिज्जिय विज्जाहर जक्ख जेण तं णिणिवि णीलणियासणेण महु भाइहि रणि देव वि अदेव पुरिसंतरुण मुहि णिविवेय रणि हणिवि जिणिवि ससिसोममंति आणिय मायंग तुरंग करह दुबई—ससिसोमेण देव जं हित्तरं तुज्झ दव्वु इय णिसुणवि चरत्रयणाउ वयणु पट्टविड वओहरु गउ तुरंतु किं भग्गउ वसुमइणाही माणु किं खलिउ गयणि दिणयरु भमंतु हा हे विबुद्धि धगधगधगंतु किं तोडिड केसरिकेसरग्गु 'भावु परिहरहि दोस + आहवि को जुज्झइ समउं तेण । पविणु दिणु संकरिसणेण । तु वहि अविरु बध्प केंव । ता पेसिय किंकर उग्गतेय । संधिवि बंधिवि णं बिंझदंति । सोवहार वरवसह सरह । घत्ता - आहरणई पसरियकिरणई कण्हहु अगर घित्तई ॥ पडणेत्तई वणविचित्तइं णं रिउअंतई पित्तई ||६|| Jain Education International ७ पेसिउ तं खेलदुक्खदाइणा ॥ वेंतउ रुद्दसुएण राइणा ॥ किड राएं मुहं रत्ततैणयणु । धरणीतणयहु वज्जरइ मंतु । किं हित्तु हेमु आगच्छमाणु आमंति किं भुक्खड कयंतु । उच्चोल्लिहि अंगार्लंड णिहित्तु । किं महिवइआणापसरु भग्गु । पट्टवहि ससामिहि सव्वु कोसु । राजाओं को समाप्त कर दिया, और जिसने बलपूर्वक तीन खण्ड धरती जीत ली है, उससे युद्ध में कौन लड़ सकता है ?" यह सुनकर नीलवस्त्रोंवाले बलभद्रने उत्तर दिया- "मेरे भाईके लिए युद्धमें देव भी अदेव है । हे सुभट, तुम शत्रुवरका किस प्रकार वर्णन करते हो । ऐ निर्विचार, तुम पुरुषान्तरको मत गिनो ।” तब उग्र तेजवाले अनुचर भेज दिये गये । रणमें शशिसोम मन्त्रीको मारकर जीतकर विन्ध्यदन्तिकी तरह रौंधकर और बांधकर हाथी, घोड़े, तुरंग, ऊँट, स्वर्णहार, श्रेष्ठ वृषभ और सरभ ले आये गये । २८७ पत्ता - जिनकी किरणें प्रसारित हो रही हैं ऐसे आभरणोंको कृष्णके आगे डाल दिया गया, जो मानो रंगों से विचित्र शत्रुके नेत्र, या उसकी आतें या पित्त हों ||६|| ६. १. A णीलणिवासणेण; P णीलणियंसणेण । २. A सोवण्णभार । ७. १. AP खलु दुक्खळ । २. AP आएंत । ३. P रत्तत्तणयणु । ४. A इंगालउ | १० ७ "शशिसोमने जो कुछ भेजा था आता हुआ वह सब तुम्हारा द्रव्य हे देव, खलोंको दुःख देनेवाले रुद्रपुत्र राजा ( स्वयंभूने ) छीन लिया ।" इस प्रकार दूतके मुखसे वचन सुनकर राजा ( मधु ) ने मुख और आँखें लाल कर लीं । उसने दूत भेजा । वह तुरन्त गया । और पृथ्वीदेवी के पुत्रसे वह मन्त्रकी बात कहता है, "तुमने धरतोके स्वामीके मानको भंग क्यों किया ? आते हुए धनको तुमने क्यों छीना ? आकाशमें भ्रमण करते हुए दिनकरको स्खलित क्यों किया ? तुमने भूखे कृतान्तको आमन्त्रित क्यों किया ? हे निर्बुद्धि, तूने धकधक जलते हुए अंगारे को कटिवस्त्र में क्यों रख लिया ? तुमने सिंहके अयालके अग्रभागको क्यों तोड़ा ? तुमने राजाकी आज्ञाके प्रसारको For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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