SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४ महापुराण [६०.८.१ इय चिंतंतु घरहु णीसरियउ णाम अमोहजीहु ओहच्छमि जइ चक्कर नवे केवलिदिउं सउणु भडारा सञ्चउं सुच्चइ तं तहु भणि उ चित्ति संमाइउ भणइ सुबुद्धि कुलिसमंजूसहि वसहि णराहिव मज्झि समुद्दहु । चवइ सुमइ पइसहि परदुच्चरि मइसायरु भासइण तसिज्जइ जं लिहियतं अग्गइ थक्का घत्ता-सुरमहिहरथिरचित्तें धरियणराहिवमुद्दे हउं तुम्हारइ पुरि अवयरियउ । पट्टणणाहहु पलउ णियच्छमि । तो जाणहि चुक्कइ मई सिट्ठउं । करु पडियारु जेम तुहं रुच्चइ । राएं मंतिहि वयणु पलोइउ । आयससंखलवलयविहूसहि । जेणुव्वरसि सदेह विमबहु । रुप्पय गिरिवरगुहविवरंतरि । णरवइ जिणवरिंदु सुमरिजइ । जमकरणहु मरणहु को चुक्कइ । कयपहुरक्खपयत्तें ॥ भासिउं बुद्धिसमुदें ॥८॥ १० विवरि णिहित्तेउ वित्त पहाणउ गेहि जयंतीपंति हिं वेविइ अच्छइ तीहिं वि संझहिं हायउ सुणि महिवइ दिटुंतकहाण उ । सीह उरइ सिरिरामासेविद । खलु दप्पिटु सोमु परिवाइउ । यह विचार करते हुए घरसे निकल पड़ा और मैं तुम्हारी नगरीमें आया। मेरा नाम अमोघजिह्व है। मैं यहाँ रहता हूँ और नगरके राजाका नाश (प्रलय ) देखता हूँ। हे राजन्, यदि केवलज्ञानीक, कहा चूक सकता है, तो समझ लीजिए कि मेरा कहा भी चूक जायेगा। हे आदरणीय, स्वप्न सच्चा कहा जाता है, तुम्हें जैसा ठीक लगे वैसा प्रतिकार कर लीजिए । तब उसका कहा राजाके चित्तमें समा गया। उसने मन्त्रीका मुख देखा। सुबुद्धि मन्त्री कहता है-"हे राजन्, तुम लोहेको शृंखलाओंके समूहसे अलंकृत वनमंजूषामें स्थित होकर समुद्रके भीतर रहो जिससे तुम अपनी देह के विनाशसे बच सको।" सुमति नामका मन्त्री कहता है कि "दूसरोंके लिए दुर्गम विजयार्ध पर्वतकी गुफाके विवरके भीतर प्रवेश करो।" मतिसागर मन्त्री कहता है-"हे राजन्, आपको पीड़ित नहीं होना चाहिए और जिनवरका स्मरण करना चाहिए। जो लिखा हुआ है, वह आगे आयेगा । यमकरण और मरणसे कौन बचता है ?" पत्ता-सुमेरु पर्वतके समान स्थिर चित्त, तथा जिसने प्रभुकी रक्षाा प्रयत्न किया है और जिसने राजा की मुद्राको धारण किया है ऐसे मतिसागर मन्त्रीने कहा-1८|| "हे राजन्, विवरमें निहित मुख्य वृत्तान्तको दृष्टान्त--कथानकके रूपमें सुनिए-ध्वजपंक्तियोंसे प्रकमिश्त तथा लक्ष्मीरूपी रमणीसे सेवित सिंहपुरमें सोमशर्मा नामका अत्यन्त दुष्ट ८. १.AP जा अच्छमि । २. AP णिव । ३. AP करि । ४. AP जेणुव्वरहि । ९. १. A णिहित्तहु । २. AP सोम्मु परिवायउ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy