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________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता - णियपइपुत्तं मरणें सोथविसं ठुलिय ॥ सुंदर भयकंपितणु कत्थइ संचलिय ||२२|| २३ -६५. २४. २ ] सा गुरुहार दिट्ठ संडिल्ले अपि सा सुबुद्धिणिग्गंथहु वसैइ जिणालइ गइ रणयालइ पुत्तु सूई देवहिं रक्खि उ पुच्छि साहु समंजसु घोसइ सोलहमइ पत्तइ संवच्छरि देवीभायरेण यसलें पडिभडवर सिरखुडणसमत्थई एतहि रिसिजैमयग्गिहि पुत्ते एकवीसवारउ णिक्खत्तिवि वड्डियवेयवयणमाह पह तावसेण संसयण वच्छल्लें । सुद्धसहावहु कहियसुपंथहु । फुल्लियाणणि तर्हि मिगमेलइ । मायइ कुलउद्धरणु णिरिक्खि । दणु छक्खंडाउ होसइ । तुपेच्छहिसि चिंधु तणुरुवरि । णि भिवणहु सिसु संडिल्लें | परिपालिउ सिक्खिउ सत्थत्थई । जयसिरिरइरसलंपडचित्तें । घत्ता - जणणमरणु सुअरंतें मारिय रायवर ॥ परसुमंतमाहप्पें रणि करवालकर ||२३|| २४ खत्तिय सयेलु वि छारुपेरत्तिवि । पुइ असेस विदिण्णी विप्पहं । Jain Education International ४६३ घत्ता - अपने पति और पुत्रकी मृत्युके कारण शोकसे अस्त-व्यस्त, भयसे जिसका शरीर कांप रहा है ऐसी वह सती सुन्दरी कहीं भी चल दी ||२२|| १० २३ स्वजनों के प्रति वात्सल्य रखनेवाले तपस्वी शाण्डिल्यने जब उसे गर्भवती देखा तो उसने सन्मार्गका कथन करनेवाले शुद्ध स्वभावसे युक्त सुबुद्धि ( सुबन्धु ) नामक निग्रन्थ मुनिको उसे सौंप दिया। वह जिनालय में रहने लगी । रणका समय बीतनेपर जहाँ पशुओंका संगम है, ऐसे खिले हुए जंगल में उसने पुत्रको जन्म दिया। देवोंने उसकी रक्षा की। माताने अपने कुलके उद्धारकर्ताको देखा । उसने न्यायशील मुनिसे पूछा । उन्होंने बताया, "तुम्हारा पुत्र छह खण्ड धरतीका स्वामी होगा । सोलहवाँ वर्ष प्राप्त होनेपर तुम अपने पुत्रके ऊपर राजचिह्न देखोगी ।" जिसका शल्य नष्ट हो गया है ऐसा देवीका भाई शाण्डिल्य बच्चेको अपने घर ले गया । उसने उसका परिपालन किया और शत्रु योद्धाओंके श्रेष्ठ सिरों को काटने में समर्थ शस्त्र-अस्त्रोंकी उसे शिक्षा दी । यहाँ पर जमदग्निके विजयश्री के रतिरसके लम्पट चित्तवाले पुत्रने धत्ता - अपने पिता के मरणकी याद करते हुए रणमें हाथमें तलवार लिये हुए राजाओं को परशुमन्त्र के प्रभावसे मार डाला ||२३|| २४ इक्कीस बार मारकर, समस्त क्षत्रियोंको खाकमें मिलाकर जिनके वेदवचनोंका माहात्म्य २३. १. A सिसुजण वच्छल्लें; P ससुर्याणि वच्छलें । २. AP सह सुबंधु । ३. A तेत्थु सा विजा वसइ जिणालइ; P वसई जिणालइ गय रयणालइ । ४. A सचिधु तणुं । ५. A सिरिजम । ६. AP सुमरंतें । ७. A मंतिमाह रणं । २४. १. A सयल वि । २. AP पवत्तिवि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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