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________________ -६०. २९. १३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३८१ घत्ता-जुझंतहं दुव्वारहं दोहं मि रायकुमारहं ॥ अंतरि थिउ विजाहरु णाइ गिरिंदहं जलहरु ॥२८॥ २९ पभणइ जिणकमकमलेदिदिरु जुज्झेउ फुल्लहिं वि असुंदरु । किं पुणु पहरणेहिं पिहिय कहि सत्तिसेल्ललंगेलचलचक्कहिं । तं णिसुणिवि भणंति ते भायर के तुम्हई पडिसेहकयायर। अक्खइ खेयरु दिवइ वायइ धादईसंडहु सुरदिसिभायइ। मंदरपुवासइ सुहवासइ खलविरहियपुक्खलवइदेसइ। तहिं रययायलि दाहिणसेढिहि आइञ्चाहणयरि गउ रूढिहि। खयरु सुकुंडलि रंभसमाणी अमियसेण णामें तहु राणी। मणिकुंडलि हर तहिं संभूयउ अत्थु व सुकइकह हि जणणूयउ । प्रवैरि पुंडरिक्किणि गउ तेत्तहि अमियप्पहु जिणपुंगमु जेत्तहि । पुच्छिउ सो मई णिययभवावलि कहइ भडारउ समयसमियकलि । पुक्खरदीवि वरुणसुरसिहरिहि पुत्वदिसहि हयसोयहि णयरिहि । घत्ता-रूवें णं मयरद्धउ महिवइ तहिं चक्कचउ ।। __ कणयमाल पीवरथणि तहु वल्लह सीमंतिणि ।।२९।। पत्ता-लड़ते हुए उन दोनों राजकुमारके बीच एक विद्याधर आकर स्थित हो गया। मानो पहाड़ोंके बीच, आकर मेघ स्थित हो गया हो ॥२८॥ २९ जिनभगवान्के चरणकमलोंका भ्रमर वह विद्याधर कहता है कि फूलोंसे लड़ना भी बुरा है। फिर सूर्यको आच्छादित कर देनेवाले शक्ति शैल हल और चलचक्र अस्त्रोंसे लड़नेका तो क्या कहना ? यह सुनकर उन दोनों भाइयोंने कहा कि मना करने में आदर रखनेवाले तुम कौन हो? तब विद्याधर दिव्यवाणीमें कहता है कि धातकोखण्डकी पूर्व दिशामें मन्दराचलकी शुभ पूर्व दिशामें दुष्टोंसे रहित पुष्कलावती देश है । वहाँ विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में आदित्य नगरके नामसे प्रसिद्ध नगर है। उसमें सुकुण्डली नामका विद्याधर था और अमृतसेना नामकी रम्भाके समान उसकी रानी थी। उससे उत्पन्न मैं मणिकुण्डल हूँ, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सुकविकी कथाके लोगोंके द्वारा संस्तुत अर्थ । वहाँसे मैं विशाल पुण्डरीकिणी नगर गया कि जहाँपर अमृतप्रभ जिनश्रेष्ठ थे। मैंने उनसे अपनी भवावलि पूछी। सिद्धान्तके ज्ञानसे जिन्होंने पापको शान्त कर दिया है ऐसे उन्होंने बताया, "पुष्कर द्वीपमें पश्चिम सुमेरुकी पूर्वदिशामें वीतशोक नामक नगरमें। पत्ता-रूपमें कामदेवके समान चक्रध्वज नामका राजा था। कनकमाला* नामको उसको स्थूल स्तनोंवाली प्रिय पत्नी थी ।।२९।। २९.१. A जुज्झव्वउ । २. P "सेल । ३. P वेयरु । ४. A संडइ। ५. A सुकहकहाहे जणियउ । ६. A पवरपुंडरिंगिणि; P पवरपुंडरिकिणि । ७. A समपसमिय । ८. P कणयद्धउ । * कनकमालिका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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