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________________ · ४३० महापुराण [६३. ६.९ गउ मंदरपुरु जिणु तवताविउ पियमित्त राएं पाराविउ। . १० महि विहेरंतु मुणियसत्थत्थउ सोलह वरिसइं थिउ छम्मत्थउ । . संतु दंतु भयवंतु सरिसिगणु - पुणु आयउ तं सहसंबयवणु । घत्ता-ववत्तहु णंदावत्तहु तरुहि मूलि आसीणउ ।। खंचियदुहु सुरंदिसिसंमुहु रिउमित्ते वि समाणउ ॥६॥ पूसहु मासहु सोक्खणिवासहु। दहमेदिणंतरि सियपक्खंतरि। छट्ठववासें वियलियपासें। लइ जोइ वियालइ। कम्मुणिवाइड खणि उप्पाइउ। केवलदसणु दोसविहंसणु। ध्रुर्व सिवमाणणु केवलजाणणु। कयमयविलएं - - कुरुकुलतिलएं । कासवगोत्तें सुयसुइसोत्तें। पत्तउं कित्तणु सिरिअरुहत्तणु। दह विह वसुविह अवर वि वयविह। सुर सोलहविह भूसणयरसिह । पंकयणेत्तं । गुणगणवेत्तं समताभावसे परिपूर्ण और तपसे सन्तप्त जिनवर मन्दरपुर नगर गये। प्रियमित्र राजाने उन्हें आहार कराया। ज्ञात कर लिया है शास्त्रार्थको जिन्होंने ऐसे वह धरतीपर विहार करते हुए सोलह वर्ष तक छद्मस्थभावमें स्थित रहे । शान्त, दांत, ज्ञानवान् वह ऋषिगणके साथ फिरसे उसी सहस्राम्रवनमें आये। घत्ता-नये पत्तोंवाले नन्दावर्त वृक्षके नीचे बैठे हुए, दुःखोंका नाश करनेवाले पूर्वदिशामें मुख किये हुए, शत्रु तथा मित्रमें समान वह-॥६॥ पौष शुक्ल दशमीके दिन, बन्धनोंको काटनेवाले छठे उपवासके द्वारा, थोड़ी-थोड़ी सन्ध्या होनेपर उन्होंने कर्मोंका नाश कर दिया और एक क्षणमें दोषोंको नष्ट करनेवाला केवलज्ञान और शिवको माननेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। जिन्होंने मदका विलय किया है, ऐसे कुरुकुलके तिलक, कश्यप गोत्रीय, पवित्र शास्त्रोंके प्रवाहवाले उन्होंने श्री अरहन्त होनेका कीर्तन प्राप्त कर लिया। दस प्रकारके, आठ प्रकारके और भी पांच प्रकारके, सोलह प्रकारके देव, (भूषण ६. १. जिणतवताविउ २. A विरहंतु । ३. AP णवपत्तह । ४. A सुरदिसिमुह । ७. १. A °दियंतरि । २. AP जायवियालइ। ३. A कम्मणिवाइउ । ४. A धुउ; P धुव । ५. AP कयमलविलएं । ६. AP "गणवंतें; AP add after this: ससहरवत्तें । ७. APणेत्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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