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________________ ४५२ महापुराण [६५.९.५ अरु अरवें गुणेण संजुत्तर अरु अरुणे पँवणे पहु वुत्तउ । अरु अरुयाणिवासु अजरामरु अरु अरुद्ध विहुरेण सुहायरु । अरु अरुहक्खरेहिं जगि भाणिउ अरु अरु बप्प जेण णउ जाणिउ । सो संसारि भमंतु ण थक्कइ अरथुइ करहुं ण सक्कु वि सक्कइ । अरु अरिहरु आवरणु महारउ । __ णिहणउ दंसणणाणणिवारउ । धत्ता-अरतित्थंकरि णिव्वुइ रंजियविउससह ।। हूई णिसुणि सुंभउमहु चक्किहि तणिय कह ॥९॥ १० एत्थु भरहि लंबियधयमालइ रयणसिहरघरि णयरि विसालइ । पहुभूवालु णाम भूमंडणु तहु जायउं परेहिं सहुँ भंडणु। बहुयहिं आहवि एकु णिरुज्झइ बहुयहिं सुत्तहिं हत्थि वि बज्झइ । खज्जइ बहुयहिं भरियभरोलिहिं विसहरु विसदारुणु वि पिपीलिहिं । बहुयहिं मिलिवि माणु तहु खंडिउ तेण वि पुरु कलत्तु घरु छंडिउँ । लोहमोहमयभयजमदूयहु रिसिउ लइउ णियडि संभूयहु । भोयाकंखइ करिवि णियाणउं मुउ लद्धउं महसुक्कविाणउं । सोलहसायराउ सो जइयहुं अच्छइ सुरवर सहुं दिवि तइयहुं । हैं, वे पापके द्वारा कैसे लिप्त होते हैं ? अरु-अशब्द-गुणसे युक्त हैं, अरु - सूर्य और पवनके द्वारा प्रभु कहे जाते हैं । अरु-आरोग्यके निवास हैं, अजर-अमर हैं। अरु-कष्टोंसे अरुद्ध हैं और शुभाकर हैं, अरु-अर्हत् अक्षरोंसे जगमें कहे जाते हैं। हे सुभट, जिसने 'अरु अरु' को नहीं जाना, वह संसारमें भ्रमण करता हुआ कभी विश्रान्ति नहीं पाता। अरहन्तकी स्तुति करने में इन्द्र भी समर्थ नहीं है। मेरे दर्शनज्ञानका निवारण करनेवाले आवरणको नष्ट करनेके लिए अरु-अरिका नाश करनेवाले हैं। पत्ता-अर तीर्थकरके मोक्ष प्राप्त कर लेनेपर विद्वद्सभाको रंजित करनेवाली सुभौम चक्रवर्तीको कथा हुई, उसे सुनो ॥९॥ इस जम्बूदीपमें, जिसमें ध्वजाएं अवलम्बित हैं और रत्नोंके शिखरवाले घर हैं, ऐसे विशाल नगरमें, पृथ्वोका अलंकार भूपाल नामका राजा है। उसको शत्रुओंके साथ भिड़न्त हुई। युद्ध में बहतोंके द्वारा एकको रोक लिया गया। बहत-से धागोंके द्वारा तो हाथी भी बांध लिया जाता है। जिन्होंने वल्मीकको भर दिया है ऐसी बहुत सी चींटियों द्वारा विषसे भयंकर विषधर खा लिया जाता है। बहुतोंने मिलकर उसके मानको खण्डित कर दिया। उसने भी पुर, कलत्र और घरको छोड़ दिया। लोभ, मोह, मद और भयके लिए यमदूत सम्भूत मुनिके पास उसने मुनिव्रत ले लिया। भोगकी आकांक्षाका निदान कर मर गया। उसने महाशुक्र विमानको प्राप्त किया। जब ३. A अरएं। ४. AP वरुणे। ५. A अरुवाणिवासु । ६. AP जेण बप्प । ७. P सभोमह । १०.१. AP भूपाल । २. Pछडिडउ । ३. AP रिसिवउ । ४. AP विवाणउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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