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________________ ३०२ महापुराण [५७. १३. ५पुण्णचंदु भयवंतु णवेप्पिणु पवरदियंबरवित्ति लएप्पिणु । जायउ इंदियदप्पवियारणु मणपज्जयणाणिउ णहचारणु । रामयत्तदेवीइ मणोहरि दिट्ठउ काणणि ललियलयाहरि । वंदिउ वंदणिज्जु णियमायइ । पुणु आउच्छिउ समेहरवायइ। कुच्छि सलक्खण एक महारी तुहुँ जणिओ सि जाइ भववइरी। अज्ज वि अच्छइ काइंरमारउ धम्मु ण गेण्हइ भाइ तुहारउ । तं णिसुणेप्पिणु भणइ भडारउ णिसुणहि ससयणभववित्थारउ । घत्ता-कोसलविसयंतरि धणभरिउ वुड्ढगाउं वइपरियरिउ । तहिं आसि मृगायणु विप्पवरु महुरइ बंभणीइ धरिउ ॥१३॥ सज्जणमोह णि णावइ वारुणि धीय बिहिं मि उप्पणी वारुणि । मरिवि मयायणु पुरि साकेयइ अइबलणामणरिंदणिकेयइ। सुमईदेविहि गम्भि समायउ पुरिसु वि थीलिंगत्तहु आयउ । धीय हिरण्णवइ त्ति य जायउ मुवणि वियंभइ कम्मविवायउ । पोयणपुरवरि रूवरवण्णी पुण्णयंदणरणाहहु दिण्णी । जा चिरु महुर सा जि तुहुं हुई रामयत्त दोहं मि सिरिदुई। भद्दमित्त सुउ तुह उप्पण्णउ सीहइंदु हउं जेहिं भिण्णउ । वारुणि पुण्णयंदु जाणिज्जसु अम्मिइ मोहु हवंतु खमिज्जसु । धरती अपने भाइयोंको देकर ज्ञानवान् पूर्णचन्द्रकी वन्दना कर, प्रवर दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर, इन्द्रियोंके दर्पका विदारण करनेवाला मनःपर्ययज्ञानी और आकाशचारी हो गया। रामदत्ता देवीने सुन्दर ललित लतागृहमें उसे देखा। उनकी अपनी माताने वन्दनीय उनकी वन्दना की और अत्यन्त मधुर वाणीमें पूछा, "हमारी कोखसे एक तुम सुलक्षण हुए थे, जो संसारका शत्रु हो गया। लेकिन तुम्हारा भाई (पूर्णचन्द्र ) आज भी लक्ष्मी में अनुरक्त है। तुम्हारा भाई धर्म ग्रहण क्यों नहीं करता?" यह सुनकर वह आदरणीय कहते हैं कि अपने जनका भव विस्तार सुनो। पत्ता-कोशल देशमें वृत्तिसे घिरा हुआ धनसे भरा हुआ वृद्ध गांव है। उसमें मृगायन नामका ब्राह्मण है, जो मधुरा नामकी ब्राह्मणीके द्वारा वरित था ॥१३॥ उन दोनोंको वारुणी नामकी कन्या उत्पन्न हुई जो सज्जनोंको मोहनेवाली जैसे वारुणी (सुरा) थी। वह विप्रवर मृगायण मरकर, साकेत नगरीमें अतिबल नामक राजाके घरमें सुमति देवीके गर्भमें आया। वह पुरुष होते हुए भी स्त्रीलिंगमें आया। वह हिरण्यवती नामकी कन्याके रूप में विख्यात हुआ । कर्मका विपाक संसारको बढ़ाता है। रूपसे सुन्दर वह पोदनपुर में पूर्णचन्द्र नामक नरनाथको दी गयी। जो पहले मधुरा थी वही तुम इस समय रामदत्ता हुई हो, तुम दोनों ही लक्ष्मीकी दूती हो। भद्रमित्र तुम्हारा पुत्र उत्पन्न हुआ और स्नेहसे भिन्न मैं सिंहचन्द्र हूँ। ४. A णएप्पिणु । ५. A समहुर। ६. AP मिगायणु । ७. AP वरिउ । १४. १. P मियाणणु । २. AP सुम्मइदेविहि । ३. A थोलिंगि तह । ४. P पुण्णइंदं । ५. AP सोहचंद्वी। ६. AP खवेज्जसु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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