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________________ महापुराण [४३. १. १४भविस्सजिणिंद अजिंदसमीह अहो सुणि सेणियराय णिसीह । जगुत्तम गोत्तमु भासइ एंव सुणंति महोरय दाणव देव । घत्ता-धादइसंडइ दीवम्मि वरे जणगोहणसंकिण्णइ ॥ तहिं पुव्वमेरुपुत्वइ दिसइ पुज्वविदेहि रवण्णइ ॥१॥ सयामयणाहिसुगंधसमीरि । सुसीयहि सीयेहि दाहिणतीरि । सकच्छउ वच्छउ देसु विसालु मरालविहंगविहिण्णमुणालु । समीवसमीवपरिट्ठियगामु परीणवासिपऊरियकामु। फलोणयछेत्तणियत्तणरिधु 'पिओ जहिं रोसणियत्तणणिधु । तहिं पुरि अस्थि पसिद्ध सुसीम दुवारविलंबियमोत्तियदाम । दुभूमितिभूमिसमुण्णयणीड महंतफुरंतसुवण्णकवाड । सरोरुहकेसरलम्गदुरेह जिणालयचूलियचुंबियमेह । हरीमणिबद्धमणोहरमग्ग णिभोयविसेसविसेसियसग्ग । तहिं अपरजिउ णाम गरिंदु करिंदु व दाणि कुलंबरचंदु। १० रईसु व भाविणिर्दुल्लहसंगु सरासणु जेम गुणेणे वियंगु । सुन्दर चरितको कहता हूँ। उत्तम और सम्यक् चेष्टावाले हे भावी जिनेन्द्र, नृसिंह, हे श्रेणिक सुनो। विश्वमें श्रेष्ठ गोतम इस प्रकार कहते हैं और उसे नाग, दानव और देव सुनते हैं। घत्ता-धातकीखण्डद्वीपमें मनुष्यों और गोधनसे परिपूर्ण सुन्दर पूर्वविदेह, पूर्वसुमेरु पर्वतके पूर्वमें है ॥१॥ अत्यन्त शीतल सीता नदीके, कस्तूरीमृगोंसे सुगन्धित समोरवाले दक्षिण तटपर, सीमोद्यानोंसे सहित विशाल वत्स देश है, जिसमें हंसपक्षी मृणालोंको छिन्न-भिन्न कर देते हैं, जहाँ ग्राम अत्यन्त पास-पास बसे हुए हैं, जहां थके हुए प्रवासियोंको कामनाएं पूरी की जाती हैं, जो फलोंसे झुके हुए खेतोंके नियन्त्रणसे समृद्ध हैं, जहां प्रिय क्रोधके नियन्त्रणसे स्निग्ध हैं। ऐसे उस वत्स देश. में सुप्रसिद्ध सुसीमा नगरी है, जिसके द्वार-द्वारपर मोतियोंकी मालाएँ लटकी हुई हैं, जहां दो या तीन भूमियों (मंजिलों) से ऊंचे मकान हैं, खूब चमकते हुए स्वर्ण किवाड़ हैं, जहां भ्रमर कमलोंपर मड़रा रहे हैं तथा जिनमन्दिरोंके शिखर आकाशको चूम रहे हैं। जहां हरितमणियों (मरकत) मणियोंसे निबद्ध सुन्दर मार्ग हैं। मनुष्योंके भोग विशेषोंसे जो स्वर्गसे विशिष्ट हैं। ऐसी उस नगरीमें अपराजित नामका राजा था, जो करीन्द्रकी तरह दानी (मदजल और दानवाला) अपने कुलरूपी आकाशका चन्द्र था। कामदेव होकर भी जिसका संग, कामिनियोंके लिए दुर्लभ था। धनुषके समान जो गुणोंसे वक्र था, जो तेल की तरह खल (खली और दुष्ट) से रहित और स्नेहपूर्ण २. १. A"सुगंधि; P°सुयंध । २. P तीरिणि । ३. A मरालमुहग्ग । ४. A पहीण' । ५. A°पवासिय ऊरिय; P°पवासियपूरियं । ६. A पउंजहि । ७. P कुलंबरइंदु । ८. P भामिणिदुग्णयसंकु । ९. P गुणेण अवंकु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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