SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ४३. ३.११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित खेलुंझ तेल्लु व हलभोड सविग्गहु सद्दु' व लक्खणवंतु हं व समेहु णिवेसियलोउ । परंजइ संधि वियाणइ मंतु । घता - अण्णाहं दिणि तेण णराहिवेण चिंतिउं होउ पहुच्चइ ॥ जं पुरउं पमल्लइ वल्लहउं अप्पणु तं लहु मुच्चइ ॥२॥ अरे जडजीव समासमि तुज् गयासु लालसु लोहर से जणेण जणो पणविज्जइ तेंव मयंग तुरंगम किंकर कासु मित्तत्तु ण बंधु विचितिवि एंव णिरुत्तु मणेण सवित्ति धरिति णिवेइय तासु गुरु पहिया सर्व यं पणवेवि दसेक्कसुयंगवयाई धरेवि सुपासुयोयणुभक्खु गसेवि छुहा भये मेहुणु हि मुएवि ३ ण करस विहं जगि को ेविण मज्झु । निरंतरयं णियकज्जवसेण । सजीउ वि तासु णरक्खइ जेंव । फलक्खइ पक्खि व जंति दिसासु । सरीरु वि एवं विणासि दुगंधु । कोक्किउ पुत्तु सुमित्तु खणेण । धरामँरधारणु कंधरु जासु । थिओ जिणदिक्खवयक्खमु होवि । पुरायरगामसयाई चरेवि । अपंडीपसुवासि वसेवि । सणाणजलेण कलंकु धुएवि । Jain Education International ९१ भोगवाला था, जो आकाशके समान समेह ( मेघ और बुद्धिसे सहित ); और लोको निवेशित करनेवाला था । जो शब्दकी तरह विग्रह रहित ( संघर्ष और पदविग्रहसे मुक्त ) था, व्याकरणकी तरह सन्धिका प्रयोग करता था और मन्त्रको जानता था । १० घत्ता - दूसरे दिन राजाका सोचा पूर्ण होता है । यदि वह प्रिय नगरको छोड़ता है तो खुद भी मुक्त हो जायेगा ||२|| ३ 1 अरे जड़ जीव, मैं तुझसे कहता हूँ कि दुनिया में मैं किसीका नहीं हूँ और कोई मेरा नहीं है । लोभ रस और निरन्तर अपने-अपने कार्यके वशसे गतालस और लालची है । मनुष्य के द्वारा मनुष्यको इस प्रकार प्रणाम किया जाता है कि उसके द्वारा अपने जीव की भी रक्षा नहीं की जाती । गज, अश्व और अनुचर किसके ? फल क्षय होनेपर पक्षियोंके समान दिशान्तरोंमें चले जाते हैं । न मित्र, न कलत्र, न पुत्र और न बन्धु, यह शरीर विनाशी और दुर्गन्धयुक्त है । अपने मन में अच्छी तरह यह विचारकर उसने एक क्षण में अपने पुत्र और मित्रको पुकारा और वृत्ति सहित धरती उसे सौंप दी कि जिसके कन्धे धराका भार उठाने में समर्थ थे। गुरु पिहिताश्रवको प्रणाम कर, जिनदीक्षा और व्रतोंमें सक्षम होकर वह स्थित हो गया। ग्यारह श्रुतांग व्रतोंको धारण कर, सैकड़ों नगरों और ग्रामोंमें विचरण कर, प्रासुक भोजनका आहार ग्रहण कर, नपुंसक, स्त्री ओर पुंस्त्वकी वासनाको वश में कर, भूख, भय, मैथुन और नींदको छोड़कर ( आहार निद्रा भय और १०. खलुज्झितेल्लु व णेहलभोड; P खलुज्झिय तेलु व्व णेहलु भाउ ११. P सदु सलक्खणवंतु । ३. १. A पयासमि । २. Pण को वि । ३. P मोहरसेण । ४. A तासु वि । ५. A एम विणासि । ६. A मित्तु सुपुत्तु । ७. A घराभरधारण; P धराभर धारणु । ८. A पिहियासव णं पणवेवि । ९. A फासु । १०. A छुहामयमेहणु । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy