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________________ ४२६ महापुराण [६३.१.११अजियसेणु तहिं पहु पियवाइणि तहु पियदसण णामें पणइणि । बंभकप्पचुउ वइरिविमद्दणु वीससेणु उप्पण्णउ णंदणु । सुणि गंधारदेसि गंधारइ पुरि पंडुरघरि पुहईसारइ। तहिं णरणाहु णाम अजियंजउ अजियदेविवल्लहु परदुजउ । . घत्ता-तेराएं सुहिअणुराएं णिरु भल्लारसं भाविउं ॥ अइरा सुय णवकिसलयभुय वीससेणु परिणाविउ ॥१॥ एयह होसइ धुवु तित्थंकर धणय धणय लइ तेरउ अवसरु तं णिसुणिवि ते कमलदलक्खें हरियउं मरगयतोरणमालहिं कोमलगत्तइ मउलियणेत्तइ णिहाएंतिइ पुण्णपवित्तिइ. एरादेविइ दिट्ठउ कुंजरु सिरिदामाई दोणि विलुलंतई कुंभजुयलु झसजुयलउं कीलिरु १० सीहासणु विमाणु अमेराणउं सोलहमउ कंदप्पखयंकरु । करि पुरु मणियरहयदिवसेसरु । कंचणपट्टणु णिम्मिउ जक्खे । जलइ व पउमरायकरजालहिं । सउयलइ पेल्लंकपसुत्तइ। पच्छिमरत्तिइ गुणगणजुत्तिइ । पसुवइ केसरि खरणहपंजरु । ससिरविबिंबई णहि उययंतई। सरवरु जलहि जलावलिचालिरु। भवणु फणिंदहु तणउं पहाणउं । त्रिजगकी उन्नतिका अपहरण कर रहा है। अजितसेन नामक वहाँका राजा था उसकी प्रिय बोलनेवाली प्रियदर्शना नामकी प्रणयिनी थी। शत्रुओंका मर्दन करनेवाला ब्रह्मस्वर्गसे च्युत होकर उनका विश्वसेन नामका पुत्र हुआ। सुनो-गान्धार देशमें पृथ्वीमें श्रेष्ठ धवल घरोंवाली गन्धारी नगरीमें अजितंजय नामका राजा था, जो अजिता देवीका प्रिय और शत्रुओंके लिए अजेय था । पत्ता-सुधियोंके प्रति अनुराग रखनेवाले उस राजाने अच्छा विचार किया कि जो उसके नवकिशलयके समान भुजाओंवाली अपनी अचिरा नामकी कन्याका विवाह विश्वसेनसे कर दिया ॥१॥ इन दोनोंसे निश्चयपूर्वक कामदेवका नाश करनेवाले सोलहवें तीर्थंकरका जन्म होगा। कुबेर-कुबेर ! लो, यह तेंरा अवसर है । तुम मणिकिरणोंसे दिनेश्वरको पराजित करनेवाले पुरकी रचना करो। यह सुनकर कमल दलके समान आँखोंवाले उस यक्षने स्वर्णनगरकी रचना की। मरकत मणियोंकी तोरणमालाओंसे वह हरा-हरा था। पद्मराग मणियोंके किरणजालसे जलता हुआ था। सौधतलमें पलंगपर सोते हुए कोमल शरीरवाली, मुकुलित नेत्र, पुण्यसे पवित्र तथा गुणगणोंसे युक्त एरा देवी थी। रात्रिके अन्तिम प्रहरमें उसने हाथी देखा । वृषभ, तीव्र नखसमूहसे युक्त सिंह, लक्ष्मी, दो मालाएं झूलती हुईं, आकाशमें उगते हुए सूर्यचन्द्र के बिम्ब, घटयुगल, खेलते हुए दो मत्स्य, सरोवर, जलकी लहरोंसे चंचल समुद्र, सिंहासन, देवोंका विमान, नागेन्द्रका प्रमुख २. P पल्लंकि पसुत्तइ । ३. AP अइरादेविइ। ४. A उवयंतई। ५. P २. १. A तोरणदारहि। अमरालउ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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