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________________ -३९. ७. १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुहईपुरि णरवरसंथुएहिं होइवि जयसेणमहारुएहिं । चिरु चिण्ण तउ जइणिंदमग्गि जाया बिणि वि सोलह मि सग्गि । घत्ता-तुहं सुहमइ हूयउ परवइ हउं ओहँच्छविं सुरवरु ।। जं जंपिउ आसि वियप्पिरं तं हिय उल्लइ संभरु॥६॥ जे गय ते मयम उलवियणयण जे हरिवर ते चल वंकवयण । संदण ण मुणंति विइण्णु णेहु किंकर णियकजहि देंति देहु । रायहं हियवइ धम्मु जि ण थाइ चामरपवणे उडेवि जाइ। अंतरि छत्तई छत्तहर दतु तं तइ वि बप्प पेक्खइ कयंतु । अंगई लच्छिहि दोसंकियाई भुजंतई केवै ण संकियाई । राय उलइं पहु पई जेरिसाइं पंचिंदियसुहविसरसवसाई। णिवडंति णरइ घोरंधयारि ण विरप्पइ किं तुहुं भोयभारि । किं रक्खइ तेरउ विजयचक्क सिरि पडइ भयंकरु कालचक्कु । तहु वयणहु तेण ण दिण्णु कण्णु गउ सुरवरु सुरहरु मणि विसण्णु । पुणु अण्णहि वासरि रयणके उ णियरूवोहामियमयरकेउ।। मुणिवरु होइवि कयधम्मसवणि आइउ थिउ सयरजिणिंदभवणि । तं पेच्छिवि पुरु जंपइ असेसु एहे उं ण रूवु पावइ सुरेसु । लोगोंके द्वारा संस्तुत जयसेन और महारुत होते हुए, प्राचीन समय में हम दोनोंने जैनमार्गका तप ग्रहण किया था, और हम सोलहवें स्वर्गमें देव उत्पन्न हुए थे। घत्ता-तुम, अब शुभमतिवाले राजा हुए हो, और मैं सुरवर ही हूँ। जो विचार तुमने कहा था, उसे अब याद करो ॥६॥ जो गज हैं वे आंखें बन्द कर मर जाते हैं, जो अश्व हैं वे चंचल और वक्रनेत्र हैं। रथ कुछ भी विचार नहीं करते । स्नेह विदीर्ण ( नष्ट) हो जाता है। अनुचर अपने स्वार्थसे शरीर देते हैं। राजाओंके हृदयमें धर्म नहीं ठहरता है, चमरके पवनसे वह उड़ जाता है। छत्रधर भीतर छत्र लगा देते हैं परन्तु उसे ( जीवको) कृतान्त वहाँ देख लेता है। लक्ष्मीके दोषोंसे अंकित अंगोंका ( सप्तांग राज्य ) का भोग करते हुए राजा लोग आशंकित क्यों नहीं होते ? पांच इन्द्रियोंके सुख रूपी विषरसके वशीभूत होकर हे प्रभु, तुम्हारे जैसे राजकुल, घोर अन्धकारपूर्ण नरकमें गिरते हैं । तुम भोगके भारसे विरक्त क्यों नहीं होते ? क्या तेरा विजयचक्र तेरी रक्षा कर लेगा? सिरपर भयंकर कालचक्र पड़ेगा। परन्तु राजाने उसके वचनोंपर कान नहीं दिया। सुरवर अपने मनमें दुखी होकर स्वर्ग चला गया। एक दूसरे दिन, अपने रूपसे कामदेवको तिरस्कृत करनेवाला मणिकेतु देव मुनिवर होकर, जिसमें धर्मश्रवण किया जाता है ऐसे जिन-मन्दिरमें सगर आकर बैठ गया। उसे देखकर, सारे नगरने कहा कि ऐसा रूप इन्द्र भी नहीं पा सकता । ६.A Pणरवई । ७. A P सो अच्छमि । ७.१. P मउले वि णयण । २. P वियण्णु । ३. A के उ संकियाई; P केम ण संकियाई। ४. P omits पुणु । ५.A P आइवि । ६. P एहउ णरु ण अच्चुयसुरेसु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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