SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४८. २. २३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित परिहातियतिवलिइ जणियसोह दावियरोमावलिअंकुरोह । घणथणहल कोंतलभसलसाम ___ कयपत्तावलि अहिजणियराम । पियविडविवेढणभासकाम कोमलिय सरस संदिण्णकाम । णं पवरअणंगहु तणिय वेल्लि णं तासु जि केरी हत्थभल्लिं । सूहव सारंगसिलिंबयच्छि तहु वल्लह देवि वसंतलच्छि । सा सुललियंगि पंचत्तु पत्त णीसासविवज्जिय पिहियणेत्त । अवलोयवि चिंतइ सामिसालु णिप्फलु मोहंधडं मोहजालु । मुय मेरी पिय पयडीकेएहिं हसइ व दसणेहि णिसिक्किएहिं । तोडेप्पिणु णिब्भरु णेहवासु अकहति ढुक्क परजम्मवासु । अप्पणिय एह मइं भणिय काई इह परियणसयणइं जाई जाई । संचियणियकम्मवसंगयाई जाहिंति एंव सव्वाइं ताई। एक्के मई जाएवउ णियाणि तो वरमइ जुंजमि अरुहणाणि । जं अच्छिवि पुणु वि विणासभाउ तं मुञ्चइ एंव भणेवि राउ । पत्ता-करु देति विहेय कुंभिणि व्व तोसियजणहु ॥ कुंभिणि ढोएवि चंदणणामहु णंदणहु ॥२॥ दिग्मण्डलको आलोकित करनेवाला पृथ्वीपाल नामका राजा था। उसकी मृगशावककी आंखोंके समान आँखोंवाली वसन्तलक्ष्मी नामकी प्रिया थो, जो परिखात्रय ( तीन खाइयों) के समान त्रिवलिसे शोभावाली थी, जो रोमावलीके अंकुरसमूहवाली थी, जो सघन स्थनरूपी फलोंसे युक्त थी, जो कुन्तलरूपी भ्रमरोंसे सुन्दर थी, की गयी पत्र-रचनावलीसे जो अत्यन्त सौन्दर्य उत्पन्न करनेवाली थी। जिसमें प्रियरूपी वक्षको घेरनेकी उत्कृष्ट शोभा और इच्छा थी, जो अत्यन्त कोमल, सरस और कामनाओंको पूर्ति करनेवाली थी ऐसी जो मानो प्रवर कामदेवकी लता है, जो मानो उसीके हाथको मल्लिका है, लेकिन सुन्दर अंगोंवाली वह मृत्युको प्राप्त हो गयी, निःश्वाससे रहित उसकी आँखें बन्द हो गयीं। उसे देखकर वह स्वामीश्रेष्ठ विचार करता है कि मोहसे अन्धोंका मोहजाल व्यर्थ है, मेरी मरी हुई प्रिया क्रोडाशून्य निकले हुए दांतोंसे जैसे हंस रही है, अपने परिपूर्ण स्नेहपाशको तोड़कर जेसे वह कुछ भी नहीं कहती हुई दूसरे जन्मवासमें पहुंच गयी है। मैंने इसे अपनी क्यों कहा? यहाँ जितने भी स्वजन और परिजन हैं, वे सब अपने संचित कर्मके वशीभूत होकर जायेंगे। जब अन्तमें मैं अकेला जाऊंगा, तो अच्छा है कि मैं अरहन्तके श्रेष्ठज्ञानमें अपनेको नियुक्त करूं। और जो विनाशभाव है उसे छोड़ देना चाहिए, यह कहकर वह राजा• पत्ता-कर ( सूंड और कर ) देती हुई हथिनीके समान पृथ्वी लोगोंको सन्तुष्ट करनेवाले अपने चन्दन नामक पुत्रको देकर ( वह )---॥२॥ ४. A विरइयणायरणरमणणिरोहु । ५. A°अंकुरोहु । ६. P°कुंतल । ७. P कयवत्तावलि । ८. A वेढणब्भास; P°वेडढ्णु। ९. A पयडीकिएहि । १०. A°णिवकम्म। ११. A विणासु भाउ; P विणासिभाउ । १२. चंदणणामें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy