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________________ २८ महापुराण और प्रत्येक पंक्तिमें ३३ अक्षर हैं । इसकी तिथि भाद्रपदकी पूर्णिमा है ( अगस्त-सितम्बर); वि. स. १६३०, ई. १५७३ के लगभग । इस पाण्डुलिपिका अन्तिम पृष्ठ क्षतिग्रस्त है और इसलिए फिरसे लिखा गया, आषाढ़ शुक्ल छठीको (जुलाई ) वि. सं. १९३४. ई. स. १८७७ के लगभग । इसमें पार्श्वभागमें संक्षिप्त टीका है। यह इस प्रकार प्रारम्भ होता है; ओं नमः वीतरागाय । बभहो । बंभालयसमियहो । मूल पृष्ठका अन्त इस प्रकार है इय महापुराणे-दुइत्तरसमो परिच्छेओ समत्तो। दूसरे रूपमें पाठ इस प्रकार है : संवत् १६३० वर्षे भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमातिथी, के (वि वासरे उत्त), रा भाद्रपदा नक्षत्रे, नेमिनाथ चैत्यालये, श्रीमूलसंघे-बलात्कार छे कुंदकुंदान्वये-स्थापन्न पृष्ठका अन्त इस प्रकार होता है। बलदेवदास टौंग्याका कारज, मीती अषाढ़ सुदी ६ समत १९३४ का सालम, श्री घीया मंडीका मंदिर पंचाइतो मंदरने छडायो ॥ छ । छ । छ । इन बलदेवदासके पास क्षतिग्रस्त पन्ना दो हिस्सों में था, जिसका पहला हिस्सा, अभी भी, मूल पाण्डुलिपिके साथ संस्थानमें सुरक्षित है; मूल पृष्ठपर १६३० अंकित है, और मूल पृष्ठपर पट्टावलीवाला हिस्सा, किसी दूसरे हाथसे लिखा हुआ प्रतीत होता है। उक्त तीन पाण्डुलिपियोंके सम्पूर्ण मिलानके अतिरिक्त प्रभाचन्द्रके टिप्पणका पूरा उपयोग किया गया है। इसकी पाण्डुलिपि, प्रोफेसर हीरालाल जैन ने, श्री मोतीलाल संघी जैन, जयपुरसे प्राप्त करायी। टिप्पणकी इस पाण्डुलिपिमें ५७ पृष्ठ हैं। जो लम्बाई-चौड़ाईमें १२४५ इंच हैं। प्रत्येक पृष्ठमें १३ पंक्तियां और प्रत्येक पंक्तिमें ३१ अक्षर हैं। यह प्रारम्भ होता है-ओं नमः सिद्धेभ्यः, बंभहो परमात्मनो । अन्त इस प्रकार होता है-श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे वर्षाणामशोत्यधिक सहस्र, महापुराण-विषम-पद विवरणं सागरसेन सैद्धान्तान् परिज्ञाय, मूल टिप्पणकां चालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणं । अज्ञपातभीतेन श्रीमद्वलात्कार गण श्रीसंघाचार्य सत्कवि शिष्येण श्रोचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ॥१०२॥ इति उत्तर पुराण टिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्यविरचितं समाप्तं छे ॥ अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दा संवत् १५७५ वर्षे भाद्रवा सुदि । बुद्धि दिने । कुरुजांगल देसे । सुलितान सिकन्दर पुत्रु सुलितानाब्राहीम सुरताज प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः । तदाम्नाये जैसवाल्ल चौ. टोडरमल्लु । इदं उत्तर पुराण टीका लिखापितं । सुभं भवतु । मागल्यं ददाति, लेखकपाठकयोः। ओम् सिद्धोंको नमस्कार, ब्रह्म और परमात्माको नमस्कार । श्री विक्रम संवतके एक हजार अस्सी अधिक होने पर, महापुराणके विषम पदोंका विवरण, सागरसेन सैद्धान्तसे (?) को ज्ञातकर और मूलटिप्पणियाँ देखकर, यह समूचा टिप्पण किया गया। अज्ञपात भीत श्रीमत् बलात्कार गणके श्रीसंघाचार्य सत्कवि शिष्य चन्द्रमुनिने, अपने बाहदण्डसे अभिभूत शत्रुके राज्यको जीतनेवाले श्रीभोजदेवके । प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित उत्तरपुराण टिप्पण समाप्त हुआ। अथ इस संवत्सर नृप विक्रमादित्य गत १५७५ वर्ष भादों सुदी, बुधवार । कुरुजांगल देशमें सुलतान सिकन्दरके पुत्र सुलतान इब्राहीमके द्वारा सुराज्य स्थापित होने पर, श्रीकाष्ठासंघ, माथुरान्वय, पुष्करगण । भट्टारक श्रीगुणभद्र सूरीदेव, उनके आम्नायमें जैसवाल .ची. टोडरमल । यह उत्तरपुराण टीका लिखवाई। शुभ हो। मांगल्य देता है-लेखक और पाठकको । __ इस पाण्डुलिपिकी पुष्पिका कुछ दिलचस्प समस्याएं खड़ी करती हैं ? जिनका मैंने प्रथम जिल्दके पृ. छह पर विस्तारसे विचार किया है। इसलिए यहां उनका फिरसे कथन और परीक्षण जरूरी नहीं है। मुझे यहाँ केवल यह कहना जरूरी है कि मैंने 'टी' का पूरा उपयोग किया है, और के. और र पर अंकित टीकाओंका भी, पाद-टिप्पणियोंकी रचनामें । उत्तर पुराणकी एक और पाण्डुलिपि मुझे ज्ञात है। यह कारंजा ( बरार ) के बलात्कार गण जैन मन्दिर में सुरक्षित है। सी. पी. एण्ड बरारके संस्कृत-प्राकृत कैटलागमें इसका क्रमांक ७०२९ है। यह क्रमांक Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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