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महापुराण
[ XLVII11. 5a बलदेवहं अग्गइ देहि तिण्णि-तीनके आगे 9का अंक दीजिए, जो बलदेवोंकी संख्या है। पूरा अंक 93 होगा, जो चन्द्रप्रभुके गणवरोंकी संख्या है। 10-11 इन पंक्तियोंमें आठ प्रातिहार्योंका वर्णन है । जैसे पिंडीद्रुम-अर्थात् अशोक वृक्ष । इन प्रातिहार्यों की स्थिति सूचीके मध्यमें चन्द्रप्रभुके अनुयायियोंमें अस्वाभाविक है।
XLVII
____ 4. 9a वच्छु जहिं रोसहुँ-वह उन स्थानोंको छोड़ देते हैं जहाँ क्रोधका वृक्ष है । 'पी' में 'वासु' भिन्न रूप स्पष्ट रूपसे वच्छका सरल रूप है।
6. 9a-b बच्चा अपनी मां और उसकी प्रतिच्छायाको देखता हुआ भ्रान्तिमें पड़ जाता है और समझता है कि उसकी दो माताएँ हैं और इसलिए वह यह निर्णय करने में असमर्थ था कि उसकी वास्तविक माँ कौन थी।
XLVIII
1. 19 गुणभद्दगुणीहिं जो संथन-अर्थात दसवें तीर्थकर, जो गुणभद्रसे गौरवान्वित हैं । हम जानते है कि गुणभद्र जिनसेनके शिष्य हैं, जो संस्कृत आदिपुराणके रचयिता है। उनकी मृत्युके बाद उनके कार्यको गुणभद्रने जारी रखा, जो उत्तरपुराण कहलाता है। गुणभदगुणीहि-इस अभिव्यक्तिका यह अर्थ भी किया जा सकता है, विशिष्ट गुणोंको धारण करनेवाले पवित्रजनोंके द्वारा।
4. 14 तं पट्टणु कंचणु घडिउं-वह नगर स्वर्णसे निर्मित था । यहाँ कंचनका प्रयोग कांचनके लिए हुआ है- अर्थात् कांचनमय । “ए-पी' में कंचणघडिउ पाठ है, क्योंकि प्रतिलिपिकार कंचणका अर्थ नहीं समझ सका।
9. la-b तं सइं पंक्तिका अर्थ है, यद्यपि शीतलनाथके अभिषेकमें प्रयुक्त जल नीचेकी ओर बह रहा था, परन्तु वह पवित्र लोगोंको ऊपर की दिशामें ले जा रहा था, अर्थात् स्वर्ग ।
10. 5b उत्ताणाणणु गव्वेण जाइ-गर्वसे आदमी अपना सिर तानकर या ऊंचा उठाकर चलता है। घमण्डी आदमी अपना सिर अकड़ाकर और ऊँचा करके चलता है।
13. 1b संभरह विरुद्धउ जिणचरित्तु-देवोंने उसके दिमागमें जिनवरके जीवनको परस्परविरोधी बातें ला दीं। बादकी पंक्तिमें उक्त परस्परविरोधी बातोंका सन्दर्भ है। उदाहरणके लिए जिन गोपाल कहे जाते हैं ( ग्वाला-पृथ्वीका पालन करनेवाले) लेकिन अपने ही शत्रुओंके लिए वे अत्यन्त भयंकर हैं।
18. 5a-b जो गायका दान करता है, वह विष्णुलोक जाता है, स्वर्णविमानमें । और स्वर्गीय मानन्द मनाता है । 11 सुज्झइ पिंपलफंसणिण-पीपल का वृक्ष छूनेसे शुद्ध होता है।
20. 14 सई विरइवि कन्बु, मुण्डसालायण-मुण्डसालायणने स्वयं गौ आदिके दानके महत्त्वको बतानेके लिए छन्दोंकी रचना की और उन्हें वह राजाके सामने लाया। राजाने अनुभव किया कि वे उतने ही प्रामाणिक हैं जितने कि वेद ।
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1. 15 कित्ति वियंभउ महं जगगेहि-मेरी कीर्ति समूचे विश्वरूपी घरमें फैल जाये। कवि अपनी काव्यशक्तिके प्रति सचेतन है, जैसा कि वह कहता है कि वह उसे विविवख्यात यश दिलवायेगी।
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