Book Title: Mahapurana Part 3
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 568
________________ -LIV ] अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद ५२१ 15. 2 कण्णाहरणकरणरणलग्गइं-सेना उस युद्धमें व्यस्त थी, जो विवाहमें दी गयी कन्या स्वयंप्रभाके अपहरणके लिए हो रहा था। 12-13 ये दो पंक्तियाँ, दो सेनाओंकी तुलना प्रेम करते हुए जोड़ेसे करती हैं । मिहुणई-मिथुनानि-प्रेमक्रीड़ामें लगे हुए । __16. 2 सिरिहरिमस्सु-जो कि ऊपर वर्णित है LI में। 16-9b, प्रजापति राजाके मन्त्रीके रूपमें । 25 माहवबलवइणा अर्थात् हरिमस्सु ।। 17. 146 णं अट्ठमउ चंदु-चन्द्रमा आठवें स्थानपर हो तो ज्योतिषशास्त्रमें मृत्युको सूचना देता है । ___19. 36 णोलंजणपहदेवीसुएण-अश्वग्रीवके द्वारा। दूसरे दृष्टिकोणके लिए देखिए मृच्छकटिक VI. 9. “कस्सट्रमो दिणअरो कस्स चउत्थो आ बट्टए चेदो" इसमें चतुर्थ स्थानका चन्द्रमा मृत्युका सूचक है। 20. 21b भीमुह-उज्झिउ-भयसे मुक्त । 21. 14b सिवकामिणीह-प्रेमिकाके द्वारा अर्थात् स्त्रीशृगाल शिवा । 16 मोल्लवणु-मूल्य या वापसी। 24. 150 कुलालचक्कु-कुम्हारका चक्र । जब अश्वग्रीवका चक्र त्रिपृष्ठको आहत नहीं कर सका, और वह उसके हाथमें ठहर गया। अश्वग्रीव बोला-यह कुम्हारके चक्र के समान है जो युद्धमें व्यर्थ है। यद्यपि त्रिपृष्ठ और उसके पक्षने इसका बहुत कुछ मूल्य आँका । अश्वग्रोवने त्रिपृष्ठको यह कहकर निन्दा को कि भिखारी तिलतुष खण्डको भूख मिटानेवाला कीमती खाद्य पदार्थ समझकर महत्त्व दे सकता है, परन्तु दूसरे लोग ऐसा नहीं सोचते। 25. 9 कामिणिकारणि कलहसमत्तो-कामिनीके लिए युद्ध में व्यस्त । LIII 5. 5b कंजबंधवो सरम्मि दिण्णपोमिणीरई-सूर्य जो कि कमलका मित्र है और झीलमें कमलके पौधोंको आनन्द देता है। 6. 8 तित्यणाहसंखम्मि रिक्खए-चौबीसवें नक्षत्रपर अर्थात् शततारिका । 8. 5a अण्णहु पासि ण सत्थविही कत्थइ सुणइ-वह शास्त्रका अध्ययन नहीं करता, मेरे अध्यापकसे वह स्वयं अध्ययन करता है। तीर्थकर स्वयं प्रकाशित है, और उन्हें किसी दूसरे गुरुकी आवश्यकता नहीं। 13. la ससयभिसहइ-शततारिकाके साथ । LIV 1. 14-15 पंक्तियोंका अर्थ है-यदि मैं (कवि) गुणमंजरीके मुखकी तुलना चन्द्रमासे करता है तो इसमें मेरी कवित्व शक्तिका प्रदर्शन नहीं होगा। मुझे कवि नहीं कहा जाना चाहिए । क्योंकि गुणमंजरीका मुख गन्दा या काला नहीं है, जैसा कि मृगचिह्न चन्द्रमण्डलपर है। उसकी आकृतिमें चन्द्रमाकी तरह घटत और वक्रता है। 3. 2 इहु कल्लोलणिवहु-कवि कहता है कि विन्ध्यशक्ति और सुषेणकी मित्रता इतनी घनिष्ठ और पक्की थी कि उनमें मेरा भेद करना असम्भव है। क्योंकि समुद्रसे उसकी लहरोंको दूर कौन कर सकता है ? दार्शनिकों द्वारा समुद्र और उनकी लहरोंका एकात्म्य, एक स्वीकृत सत्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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