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-६७. १६. १३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
जं दिणयरबिंबु व विप्फुरिउ पडिवक्खें चक्कु मुक्कु तुरिउ । सुहडत्तदीउ णं संचरिउ
तं दत्तएण हत्थे धरिउ । हउ वईरि तेण मारिउ तुमुलि गउ णिवडिउ सत्तमधरणियलि । इह एव एहु थिउ गपि जहिं महि मुंजिवि कण्हु वि गर्यउ तहिं । तहिं अवसरि सील परिग्गहिर । हलिणा हिय उल्लउं णिग्गहिउं । संभूयजिणेसरु सेवियउ
तवतावे अप्पउ तावियउ । सहियई बावीसपरीसहई
महियइं चउकम्मइं दुम्महई । अणयार महाकेवलिपवरु
जायउ कालेण अजर अमरु । ससहावे तिहुवणसिहरु णिउ बीयउ परमेट्टि हवेवि ठिउ । सो बुधु सिधु णिचूयरउ धुवकेवलदसणणाणमउ । मयरद्धयचावसमुल्ललियं
णिसियं संछिंदउ आवलियं । घत्ता-भरहणमंसिउ महे देहाणियं ॥
सुकुसुमयंतउ कुसुमसराणियं ।।१६।। इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महामव्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए
महाकब्वे मल्लिणाहपंउमचक्किणंदिमित्तदत्तयबकिपुराणं णाम
सत्तसट्ठिमो परिच्छेओ समत्तो ॥६७॥
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जो दिनकरके बिम्बके समान चमक रहा है ऐसे उस चक्रको तुरन्त चलाया गया मानो सुभटत्वका द्वीप ही संचरित कर दिया गया हो। दत्तने उसे अपने हाथमें ले लिया। वैरी नष्ट हो गया। उसके द्वारा मारा गया वह भयंकर सातवें नरक में गया। इस प्रकार यह जहाँ जाकर स्थित रहा धरतीका भोग कर नारायण भी वहीं गया। उस अवसरपर बलभद्रने शील ग्रहण कर लिया और अपने हृदयका निग्रह किया। उसने सम्भूत जिनेश्वरकी सेवा की और तपके तापसे स्वयंको सन्तप्त किया। उसने बाईस परिग्रहोंको सहन किया। दुर्मद चार घातिया कर्मोका नाश कर दिया। अनागर महाकेवली प्रवर समयके साथ अजर-अमर हो गये। अपने स्वभावसे वह त्रिभुवनकी शिखरपर ले जाये गये और दूसरे परमेष्ठी (सिद्ध) होकर स्थित हो गये। पापको नष्ट करनेवाले वह बुद्ध सिद्ध शाश्वतरूपसे केवलदर्शन ज्ञानमय हो गये । कामदेवके धनुषसे उल्लसित
पत्ता-कुसुमबाणमयी मेरे शरीरमें लगी हुई पैनी तीरपंक्तिको हे कुन्दकुसुमके समान . कान्तिवाले भरतके द्वारा नमनीय मल्लिनाथ काट दो ।।१६।। वेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका मल्लिनाथ पद्म चक्रवर्ती नन्दीमित्र
दत्तबकि पुराण नामका सड़सठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६॥ १६.१. A पडिचक्कें । २. AP तेण वहरि । ३. A इह एम गंपि थिउ एह जहिं । ४. A जाम तहिं; P
तेम तहिं । ५. AP तवभावें । ६. A दुम्मयई । ७. AP धुर । ८. A णिसि पासिउ छिदिउ आवडियं । ९. A महं । १०. A मल्लिणाहणिव्वाणगमणं णाम सत्तसत्तिमो ।
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