________________
५१२
महापुराण
[xxxVIII - पर बैठनेकी तारीख 620 ईसवी है, बाणकी ( 620 ) की तुलनामें, और वत्सभट्टिको प्रशस्ति ( 473 ई. सं.) से 18 a-b-पुष्पदन्त जो अपनेको काव्यपिसल्ल कहते हैं, कुछ लोगोंके द्वारा सम्मानित हुए, और कुछ लोगों द्वारा असम्मानित हए, यह कहते हुए कि वह बुद्ध है। 11 देवोसुय-देवोका पुत्र, अथवा देवियव्वा of 3.1a ऊपर-अर्थात् भरत ।
6. 3a-b यहाँ कवि अपने आश्रयदाता भरतको विश्वास दिलाता है कि उसकी काव्य-प्रतिभाकी अभिव्यक्ति जिनवरके चरणकमलोंकी भक्ति के कारण है, आजीविकाके लिए धन कमाने की इच्छासे नहीं । (णउ णियजी वियवित्तहि ), 10 करहु कण्णि कहकोंडलु-अजितनाथके कथाके कर्णकुण्डलको तुम अपने कानोंमें धारण करो।
7. दूसरे तीर्थकर अजितनाथकी कथा इस कडवकसे शुरू होती है; मैं पहले ही उस ऊबाऊ शैलीका सन्दर्भ दे चुका है जिसमें बड़े लोगोंकी जीवनियोंका जैन साहित्यमें वर्णन किया जाता है ( म. पु. जिल्द I पृ. 599 )। सबसे पहले हम तीर्थंकरों या महापुरुषों के बारेमें सूचनाएँ पाते हैं जिनमें वे कुछ विशेष योग्यताएँ हैं, जिनके कारण अगले भवमें तीर्थंकरोंका जन्म होता है। अजितनाथके मामले में विमलवाहन एक राजा था जो वत्स देशका शासक था जो कि पूर्व विदेहमें सीता नदीके दक्षिण किनारेपर स्थित था। वहीं एक दिन उसे सांसारिक जीवनसे विरक्ति हो जाती है, वह तप करता है, सोलह कारण भावनाओंका ध्यान करता है, (जैसे तीर्थकर नाम गोत्र इत्यादि)। उपवासपूर्वक उसको मृत्यु होती है, और वह विजय अनुत्तर विमानमें उत्पन्न होता है। वहां उसकी तेंतोस सागर प्रमाण आयु थी। जब उसके लम्बे जीवनके छह माह बाकी बचते हैं, तो सौधर्म इन्द्र जान लेता है कि यह अहमेन्द्र अयोध्यामें जन्म लेनेवाले हैं, भारतवर्ष में राजा जितशत्र और रानी विजयाके पुत्रके रूप में। वह कुबेरको अयोध्यापर स्वर्णको वर्षा करनेका आदेश देता है। श्री, ह्रो, धृति, मति, कान्ति और कीर्तिके ये छह देवियाँ विजयाकी देखभाल करनेके लिए आती हैं, रानी विजया सोलह सपने देखती है, नींद खुलने पर वह राजासे उनका वर्णन करती है, जो उसे बताते हैं कि वह जिनको जन्म देगी । जब विमलवाहन अपने जीवनके समयको समाप्त करता है तो वह विजयाके गर्भमें हाथोके रूपमें जन्म लेते हैं । उस अवसरपर देव आते हैं और राजाको बधाई देते हैं । तीन ज्ञानोंके साथ जिनवर जन्म लेते हैं, अर्थात् उन्हें मति, श्रुति और अवधिज्ञान प्राप्त थे। माघ शुक्ला दशवींके दिन इन्द्र के नेतृत्वमें देवता वहाँ पहुँचते हैं और जिनवरकी तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, माता-पिताको प्रणाम करते हैं। माताको मायावी बालक देते हुए वे जिनबालकको मन्दराचलपर ले जाते हैं, जहाँ उनका अभिषेक करते हैं। उनका अजित नामकरण करते हैं, और उनकी स्तुति करते हैं। उसे अयोध्या वापस लाकर माताको सौंप देते हैं। जब अजितनाथ युवा हुए, तो उनको एक हजार गजकुमारियोंसे विवाह हुआ। उनका युवराजके रूपमें अभिषेक हुआ। उन्होंने 19 लाख पूर्व धरतोका उपभोग किया। एक रात युवराज अजितने उल्कापात देखा और उससे यह सोचते हुए कि भाग्य उसी प्रकार क्षणभंगुर है, जिस प्रकार यह उल्का । एक बार फिर देवता आये और निश्चयके लिए भगवान्की प्रशंसा की। उन्होंने अपने पुत्र अजितसेनको गद्दीपर बैठाया। देवोंने उनका अभिषेक किया और माघ शुक्ल नवमीको दोपहर बाद उन्होंने केशलोंच कर दीक्षा ग्रहण की। मुनि अजितके बालोंको देवेन्द्रने इकट्ठा किया, स्वर्णपात्र में, और उन्हें क्षीरसमुद्र में फेंक दिया। उनके साथ एक हजार राजकुमारोंने दीक्षा ग्रहण की। थोड़े ही समयमें उन्हें चौथा मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। उन्होंने ढाई दिनका उपवास ग्रहण किया और दूसरे दिन अयोध्यामें राजा ब्रह्माके घर उपवास तोड़ा। उसे पांच आश्चर्य प्राप्त हुए । अजितने बारह वर्ष तक तप किया, और पौष शुक्ला ग्यारहवीं के दिन सप्तच्छद वृक्षके नीचे उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया । इस अवसरपर इन्द्र और दूसरे देव आये। उन्होंने स्तुति की और समवसरणकी रचना की। उसमें अजितनाथ सर्वभद्र सिंहासनपर बैठे । उनके साथ आठ प्रातिहार्य थे। उन्होंने धर्म प्रवचन किया। उनके अनुयायी बारह गणोंमें विभक्त थे-गणधर, पूर्वधारिन, शिक्षक, अवधिज्ञानो, केवली,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org