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महापुराण
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रु मेल्लिववणि थिउ मुक्कगत्तु रायाहिराउ णिव्वूढमाणु वजाउहु अवइण्णइ वसंति तडिदाढें चिरभववइरिएण खयरेण णायपासेण बधु सा तेण णिय दढकरयलेण रिउ णासिवि गड भयभीयजीउ वसिकयसुरणरविज्जाहरासु घरु आयई ता परिहरिवि मरगु
कालें अरहंतावत्थ पत्तु । गोमणिकामिणि अणुहुंजमाणु । जलि रमइ सुदंसणसरवरंति । दुक्कम्मभाव संचारिएण । विउलइ सिलाइ सह संणिरुद्ध । गय सयदे णारि व रयमलेण । घिरि पट्टु कुलहरपई उ । वणिहि चउदहरयणाई तासु । घरि णहरु एक पवण्णु सरणु । घत्ता-तहु अणु आगय असियरखयरि चवइ हणमि को मई धरइ ॥ पहरणकरु थविरु अवरु अइड णिवहु सवइयरु वज्जरइ || १८ | १९
इह वरिसि खगायलि अरिहभत्तु तहु देवि जसोहर वाउवेड तेथुजि पुरु किंणरगीउ अस्थि तहु सुय सुकंत महुं तणिय कंत
[ ६१.१८.१
सहपुर पहु इंदयत्तु । हउं पुत्तु पुण्णसं पुण्णतेउ । तर्हि चित्तचूल खगु जसगभत्थि । बहुतमंत विहिबुद्धिवंत ।
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मुक्त शरीर वह घर छोड़कर वनमें स्थित हो गया और समय बीतनेपर वह अरहन्त स्थाको प्राप्त हुआ । अपने मानका निर्वाह करनेवाला राजाधिराज धरती और लक्ष्मीको भोगता हुआ वज्रायुध वसन्त ऋतु आनेपर सुदर्शन नामक सरोवरमें जल में क्रीड़ा कर रहा था । पूर्वजन्मके शत्रु और दुष्कर्मभावसे संचारित विद्युष्ट्र विद्याधर ने उसे नागपाशसे बांधा और विशाल चट्टानसे उसे अवरुद्ध कर दिया। उस चट्टानको उसने अपने दृढ़ करतलसे आहत किया, वह उसी प्रकार सौ टुकड़े हो गयी जैसे रजस्वला स्त्री रक्तमलसे लाजके कारण टुकड़े-टुकड़े हो जाती है । भयसे भीत जीव शत्रु नष्ट होकर चला गया । वह कुलगृहका दीपक अपने घर आया । जिसने मनुष्यों और देवोंकी विद्याओं को अपने वशमें कर लिया है, ऐसे उसके घर नौ निधियां और चौदह रत्न आये । एक विद्याधर मरणके भय से उसके घर शरण आया ।
धत्ता -- उसके पीछे हाथ में तलवार लिये हुए एक विद्याधरी आयी और बोलो कि मैं मारूँगी, कौन मुझे पकड़ सकता है ? एक और बूढ़ा विद्याधर हाथमें हथियार लेकर आया और राजासे अपना वृत्तान्त कहने लगा ||१८||
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इस भारतवर्ष में विजयार्धं पर्वतके शुक्रप्रभ नगर में अर्हद्भक्त राजा इन्द्रदत्त है । उसकी देवी यशोधरा है । उसका में पुण्यसे सम्पूर्ण तेजवाला वायुवेग नामका पुत्र हूँ । उसी देश में किन्नरगीत नगर है । उसमें यशकी किरणोंवाला विद्याधर राजा चित्रचूल है । उसकी कन्या
१८. १. AP सहसा णिरुद्ध । २. A संयत्रण । ३ AP जियपुरि । ४. AP मई को । १९. १. A अरुह् ।
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