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महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-दुसहसदुसयइं सावहि हयकलि ।।
तेहिं जेत्तिय ते तेत्तिय केवलि ॥९॥
चउदहसय वाईसह विकिरियह वि रिसीसहं। णवसय दोणि सहासई कुच्छियणयविद्धंसई। मणजाणहं सत्तारह
सयपण्णास समीरह। पंचावण्णसहासई
विरइहिं मुक्कंसवासई। सावयलक्खु अहीण
सावई हिं तं तिउणउं । सुर असंख उम्मोहिंवि पसु ससंख संबोहि वि। भवसमुदतडपाविए
मासंसेसथियजीविए। पंचसहासहिं जुत्तओ रिसिहि णाहु तमचत्तओ। संमेए सिरह्यणहे
फग्गुणि सियपंचमियहे। भरणीरिक्खे मुक्कओ
अट्ठमपुहइहि थक्कओ। पत्ता-हरउ भयंकरं भवविन्भमदुहं ॥ मल्लिमुणीसरो देउ सुहं महं ॥१०॥
११ मल्लितित्थसंताणे कयपडिवक्खवहं
बुहयणसुइसुहयरणं णिसुणह चक्किकहं । घत्ता-पापका नाश करनेवाले अवधिज्ञानी दो हजार दो सौ थे। वहां जितने थे उतने ही केवलज्ञानी थे ॥९॥
वादी मुनि चौदह सौ थे। कुत्सित नयोंका ध्वंस करनेवाले विक्रिया-ऋद्धिके धारक मुनि दो हजार नौ सौ थे। तुम मनःपर्ययज्ञानी एक हजार सात सौ कहो। अपना गृहवास छोड़नेवाली पचपन हजार आर्यिकाएं थीं, श्रावक एक लाख थे और श्राविकाएं तिगुनी अर्थात् तीन लाख थीं। असंख्य देवोंको मोहमुक्त कर संख्यात तियंचोंको सम्बोधित कर संसाररूपी समुद्रका तट प्राप्त कर जीवनका एक माह शेष रहनेपर पांच हजार मुनियोंके साथ अन्धकार रहित स्वामी शिखरसे आकाशके छूनेवाले सम्मेद शिखरपर फागुन शुक्ला सप्तमीके दिन भरणी नक्षत्र में मुक्त हुए । वे आठवीं धरतीपर पहुंच गये।
पत्ता-हे मल्लि जिनेश्वर, तुम भयंकर भवविभ्रमके दुखको दूर करो और मुझे सुख दो ॥१०॥
११ मल्लिनाथकी तीर्थपरम्परामें जिसमें शत्रुपक्षका वध किया गया है, जो बुधजनोंके कानोंके ४. AP तहिं हुय जेत्तिय तेत्तिय । १०.१. A पण्णावण । २. A मुक्कसवासई; P मुक्कभवासई। ३. A संमोहिवि । ४. AP माससेसि
थिइ जीविए । ५. AP पुहविहि । ६. AP महं सुहं । ११. १. A°सुहजणणी; P°सुहजाणण ।
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