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महापुराण
[ ६७. ८.९
धित्तं पञ्चक्खाणयं
मोत्तं भत्तं पाणयं । बिहिं दिवसेहिं गएहिं सो दसदिसिवहपसरियजसो। णिण्णेहो णीसंगओ
मिहिलाए भिक्खं गओ। णंदिसेणवरराइणा
दिण्णं भत्तं जोइँणा। मुत्तं तणुणिवाहणं
संजमजत्तासाहणं । पत्ता-पुणु दिक्खावणे सुरहियपरिमले ॥
थक्कु असोयहो तलि धरणीयले ॥८॥
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दिणि छक्के विच्छिण्णए भिण्णे मिच्छादुण्णए। हुउ देवाण वि देवओ
लद्धो खाइयभावओ। रिसिविज्जाहरसंसिओ इंदपडिंदणमंसिओ। समवसरणि आसीणओ अरिसुयेणे वि समाणओ। जीवमजीवं आसवं
संवरणिज्जरणं तवं । बंधं मोक्खं भासए
लोयं धम्मविसेसए। थवइ तस्स णिसुणियझुणी अट्ठवीस जाया गणी। सयई पंचपण्णासई
पुन्वधराह णिरासइं। एक्कुणतीससहासई
सिक्खुयाहं मलणासइं। हो गये । प्रत्याख्यानावरण आदि छोड़नेके लिए भात और पानी छोड़ दिया। दो दिन हो जानेपर दसों दिशाओंमें जिनका यश फैला हुआ है ऐसे निर्नेह और अनासंग वह मिथिला नगरीमें भिक्षाके लिए गये। नन्दिषेण श्रेष्ठ राजाने योगीको आहार दिया। शरीरका निर्वाह करनेवाला और संयमयात्राका साधक आहार उन्होंने ग्रहण कर लिया।
घत्ता-फिर सुरभित परागवाले दीक्षावनमें वह अशोक वृक्षके नीचे धरणीतलपर स्थित हो गये ॥८॥
छठा दिन बीतनेपर (पारणाके बाद) मिथ्या दुर्नय नष्ट होनेपर वह देवोंके देव हो गये। उन्होंने क्षायिकभाव प्राप्त कर लिया। ऋषि विद्याधरों द्वारा प्रशंसित इन्द्र और प्रतीन्द्र के द्वारा प्रणम्य समवसरणमें बैठे हुए शत्रु और स्वजनमें समान वह जीव-अजीव-आस्रव-संवर-निर्जरा-तपबन्ध और मोक्षका कथन करते हैं, लोकको धर्मविशेषमें स्थापित करते हैं। जिन्होंने दिव्यध्वनि सुनी है ऐसे उनके अट्ठाईस गणधर हुए। आशारहित पूर्वांगके धारी पांच सौ पचास थे। मानका नाश करनेवाले शिक्षक उनतीस हजार थे।
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३. P घेत्तुं । ४. A मोत्तं । ५. P राइणो। ६. A भिक्खं; P भक्खं । ७. A जोइणो । १. P add after this: पूसकिण्हदीयए तओ, पंचमु णाणुप्पण्णओ । २. A अरिसयणे; P अरिसयणा । ३ A सिक्खुवाह; P भिक्खुयाह ।
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