Book Title: Mahapurana Part 3
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 495
________________ ४४८ महापुराण थिउ गभंतरालि जो धणवइ सो अहमिंदु चवेप्पिणु सुहमइ। थुउ अमरिंदचंदधरणिंदहिं। तहु दिर्वसहु लग्गिवि जक्खिदहिं । वुट्ठउं विसरिसेहिं वसुहारहिं । अट्ठारहपक्खंतरमेरहिं । परिवेट्टतइ दिणसंताणइ वरिसकोडिसहसेण विहीणइ । थक्कइ कुंथुणाहणिव्वाणइ पल्लचउत्थभायपरिमाणइ। वरमग्गसिरमासि सिसिरहु भरि पूसजोइ चउदहमइ वासरि । घत्ता-सग्गमग्गसंखोहणु बुहयणदुरियहरु । णाणत्तयसंजुत्तउ णासियजम्मजरु ॥४॥ सत्तमचक्रवट्टि हयपरमउ संभूयउ जिणु अट्ठारहमउ । मंदेरसिहरि तूरणिग्योसहिं ण्हविउ पुरंदरेहिं बत्तीसहिं । णामु करेप्पिणु परमेसहु अरु अम्महि करि अप्पिड आविवि घरु । गउ पोलोमीवइ णियमंदिर वडइ पुण्णवंतु जिणु सुंदरु। हेमच्छवितणु दहदहधणुतणु गरुयारउ गुणगणरंजियजणु । एक्कवीसवरिसहं सहसई सिसु लीलइ थिर डिंभयकीलावसु । एक्कवीसंसहसई मंडलवइ एकवीससहसई पुणु महिवइ । चउदह रयणई णव वि णिहाणइं मुंजिवि पीणिवि दविणे दीणई । अन्तिम प्रहरमें रेवती नक्षत्रमें, जो धनपति, अहमेन्द्र था, शुभमति वह, वहाँसे च्युत होकर, गर्भमें आकर स्थित हो गया। अमरेन्द्र चन्द्र और धरणेन्द्रने स्तुति की। उस दिनसे लेकर यक्षेन्द्रने अठारह पक्षों तक असामान्य स्वर्णधाराकी वर्षा की। कुन्थुनाथके निर्वाणके बाद समयकी परम्परा बीतनेपर एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्यका चौथाई भाग जब शेष रह गया, तो शिशिरके भारसे भरे मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षकी चतुर्दशीको पुष्य नक्षत्रमें पत्ता-स्वर्गमार्गको क्षुब्ध करनेवाले, बुधजनोंके पापको हरण करनेवाले तीन ज्ञानोंसे युक्त, जन्म और बुढ़ापेका जिन्होंने नाश कर दिया है ॥४॥ ऐसे शत्रुका मद दूर करनेवाले सातवें चक्रवर्ती और अठारहवें जिन उत्पन्न हुए। मन्दराचलके शिखरपर, बत्तीस इन्द्रोंने तूर्योके निर्घोषके साथ उनका अभिषेक किया। परमेश्वरका 'अर' नाम रखकर और घर आकर माताके हाथमें सौंप दिया। इन्द्र अपने घर चला गया। पुण्यवान् सुन्दर जिन बढ़ने लगे। स्वर्णके समान शरीर कान्तिवाले उनका शरीर बीस धनुष प्रमाण ऊंचा था। और वह अपने गुणगणसे जनोंका रंजन करनेवाले थे। बाल क्रीड़ाके वशीभूत वह शिशु इक्कीस हजार वर्ष तक क्रीड़ामें रहा। फिर इक्कीस हजार वर्षों तक वह मण्डलपति रहे फिर इक्कीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ती राजा रहे । चौदह रत्न और नौ निधियोंका भोगकर धनसे ४. A देवसहु; P दिवहह । ५. AP परिवड्ढंतह। ६. AP दिणि । ७. P सियमग्गसिर । ८. A सिसिहरभरि; P सिसिरहे भरि । ५. १. K मंदिरसिहरि । २. P एक्कवीससहसहसई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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