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महापुराण
[६६. १०.८. गउ गरयहु णियमणगहियखेरि महि साहिवि पहयाणंदभेरि । हरि हलहर रज्जु करंत थक्क ता कालें अणुयहु दिहि मुक्क । सन्भंतरि णिवडिउ चक्रपाणि हलिणा विरइय कम्मावहाणि । सिवघोसगुरुहि उवएसएण सिद्धउ मुक्कउ मोहें मएण। घत्ता-भरहणराहिवहिं मणभरियभत्तिपइरिक्कहिं ॥
वंदिउ विसहरेहिं खगपुप्फयंतगहचक्कहिं ॥१०॥
इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महामस्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरहण महाकव्वे सुभउमचक्कट्टिबलएववासुएवपडिवास एवकहंतरं नाम
छसटिमो परिच्छेओ समत्तो ॥६६॥
अवहेलना करनेवाला वह शत्रु गिर पड़ा। अपने मनमें कलहका भाव धारण करनेवाला वह नरकमें गया। जिसमें आनन्दकी भेरी बजायी गयो है. ऐसी धरतीको सिद्ध कर जब बलभद्र और नारायण राज्य करते हुए रह रहे थे, तो कालने अनुज (पुण्डरीक ) पर अपनी दृष्टि छोड़ी। चक्रवर्ती नरकके मध्य गया। बलभद्रने शिवघोष गुरुके उपदेशसे कर्मोका नाश किया तथा मोह और मदसे मुक्त होकर वह सिद्ध हो गये।
पत्ता-जिनके मन में भक्तिको प्रचुरता भरी हुई है, ऐसे भरतक्षेत्रके राजाओं, विषधरों, विद्याधरों, सूर्य-चन्द्र आदि गृहचक्रोंने उनकी वन्दना की ॥१०॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सुमोम चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव प्रतिवासुदेव कथान्तर नामका छियासठवाँ
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६६॥
१०.१. AP सहिवि । २. AP हलिणा पुण विरइय कम्महाणि । ३. A°रिसिहि । ४. AP omit पडिवा
सुएव । ५. P adds सत्तमचक्कवटि अर स एव तित्थयर अटुमचक्कवट्टि सुभौम छट्टबलएव णंदिसेण, वासूदेव पुंडरीय, पडिवासुएव णिसंभ एतच्चरियं सम्मत्तं; K gives this in margin |
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