Book Title: Mahapurana Part 3
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 522
________________ संधि ६७ तिहुवणसिरिधेरो सल्लविवजिओ ॥ जो परमेसरो सयमहपुजिओ॥ध्रुवकं ।। जेण हओ णीहारओ सुजसोधवलियहंसओ जा कंती मयलंछणे सा वि जस्स मुहपंकए मोत्तूणं महिवइचलं गाढं जेण वसं कयं हिंसायारो वारिओ कामभोयआसी हया णट्ठा जस्स विवाइणो रुइणिज्जियणीहारओ। जस्स मुवणसरहंसओ। संपुण्णा जाय छणे । इर मजेइ णिप्पंकए। चित्तं सोदामणिचलं । मुणिमग्गे णीसंकयं । जो कोवाणलवारिओ। सरहस्स व वणसीया। अइबहुकम्मविवाइणो। सन्धि ६७ जो त्रिभुवनकी लक्ष्मीको धारण करनेवाले और शल्यसे रहित हैं, जो परमेश्वर इन्द्रके द्वारा पूज्य हैं। जिन्होंने मनुष्यको मिथ्या चेष्टासे उत्पन्न कर्मको नष्ट कर दिया है, जिन्होंने कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है, जिन्होंने अपने सुयशसे सूर्यको धवलित किया है, जिनका यश भुवनरूपी सरोवरमें हंसकी तरह क्रीड़ा करता है। पूर्णिमाको रात्रिमें चन्द्रमाकी जो सम्पूर्ण कान्ति होती है, वह भी जिसके निष्पंक ( कलंकरहित ) मुखरूपी कमलमें डूब जाती है। राज्यलक्ष्मीको छोड़कर जिन्होंने सौदामिनीकी तरह चंचल मनको अच्छी तरह वशमें किया है और मुनिमार्गमें निःशंकभावसे लगाया है । जिन्होंने हिंसामय आचारका निवारण किया है, जो क्रोधरूपी आगका निवारण करनेवाले हैं, जिन्होंने कामभोगरूपी सर्पको दाढ़को नष्ट कर दिया है, उसी प्रकार जिस प्रकार अष्टापद वनसिंहको नष्ट कर देता है। अत्यन्त अधिक कर्मविपाकवाले विवादी जिनसे नष्ट हो गये All Mss. have, at the beginning of this samdhi, the following stanza: इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजस्रं लेखकैश्चारु काव्यम् । गतवति कविमित्रे मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेऽस्मिन्भाति विद्याविनोदः ॥१॥ १. १. A सिरिवरो। २. K reads a p: मिज्जइ इति पाठे मीयते । ३. A महिवइबलं । ४. T reads ap: कामभोइसी इति पाठे काम एव भोगी सर्पस्तस्य आसी दंष्ट्रा । व पदन्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574