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-६६. ४.२ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
घत्ता-पई विप्पेर्ण जगि जीवहं भवियन्वु पमाणिउं ॥ महुहुं मरणु भणु भणु जइ पई फुड जाणिउं ॥ २ ॥
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तं णिणिवि विप्पें वुत्तु एम भोयणकालइ रसरसियभावि रिउदसण असणभावेण जासु ताराएं यरि महाविसाल संणियि णिओइय दिष्णु दाणु पीणिविदेसिय तित्तिइ डेरंत दसदिसि हि पसरिय एह वत्त अदीहरपंथें मंथिएण भो भो कुमार लहु जाहि जाहि
घत्ता - किं वणतरुहलेहिं खद्ध हिं मि तित्ति ण पूरइ ॥ महुं भायर हियवडं जूरइ ॥ ३ ॥
छवि
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जहिं जणवड भुंजइ अप्पमाणु । जहिं दरिसिज्जइ ससिअंतसोहु
राहु के अस्थि दाणु भोयणपत्थव मुहरुहोहु
रायाहिरा भो णिसुणि देव | अग्गइ दक्खालिइ कयसरावि । णिव परिणमंति तुहुं वज्झु तासु । काराविय तक्खणि दाणसाल । घिउँ दुद्धु दहिउं इच्छापमाणु णिश्चं चिंय दाविज्जंति दंत | कवीराणुयइसुसिरु पत्त । वैणि जंतें वुत्तर पंथिएन । सायणयरि भुंजंतु थाहि ।
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घत्ता- तुम विप्रके द्वारा विश्वमें जीवोंका भवितव्य प्रमाणित किया जाता है । मेरा मरण कब होगा ? कहो - कहो, यदि तुम स्पष्ट जानते हो तो ? ॥२॥
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यह सुनकर विप्रने इस प्रकार कहा, "हे राजाधिराज देव, सुनिए । जिसमें रसके ज्ञायकका भाव है ऐसे भोजनकालमें, सकोरेमें रखे गये शत्रुके दांत जिसके आगे दिखाये जानेपर ओदनभावप्राप्त होते हैं, हे नृप तुम उसके द्वारा वध्य होगे ।" तब राजाने नगर में उसी क्षण एक विशाल दानशाला बनवायी। वहीं किंकर रख दिये । इच्छाके अनुसार घी, दूध और दहीका दान दिया । प्रसन्न करते हुए यात्रियोंको नित्य ही दाँत दिखाये जाते । दसों दिशापथों में यह बात प्रसारित हो गयी । कृतवीर के अनुज सुभौमके कर्णविवर में यह बात पहुँची । अत्यन्त लम्बे पथसे श्रान्त वनमें जाते हुए एक पथिकने कहा, "हे कुमार, शीघ्र जाओ - जाओ और साकेत नगर में भोजन करते हुए रहो ।
घत्ता-खाये गये वन-तरुफलोंसे क्या ? तृप्ति पूरी नहीं होती, तुम्हारा शरीर देखकर हे भाई, मेरा हृदय सन्तप्त होता है ||३||
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जहाँ राजाका दान है, जहां अप्रमाण जनता भोजन करती है। भोजन के प्रस्ताव के समय
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६. A विप्पेण वर जगि; P विप्पें वर जगि । ७. AP पमाणिउं । ८. जाणियउं ।
३. १. AP पीणिय । २. A फुरंत । ३. A ददिसिपह; P दसदिसिप । ४. A कुमरहु अखिउ ता
पंथिएन ।
o
४. १. P पत्यारई ।
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