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-६६. ८. २ ]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
कयला लाजल णावइ कोमल झंर्दुलिय
ते सिरीधरि दिण्णी णिवकरि अंबिलिय । भक्त "चक्खतें सिरु धुणिउं
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रसु
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"राएं तं रूसिवि तहु गुण दूसिवि जं भणिडं । तं खलसंहिं णिरु दुवियड्ढहिं पोसियउं जीवि धीरहु हु सुवारहु णासियउं । मरिवि सतामसु जायउ जोइस दुक्कु तर्हि
छण्णें रोसें वणिवरवेसें राउ जहिं । तें महिवालहु जीहालोलहु ढोईयेई
फलई अणेय बहुरेस भेयइं जोइयेई । ईतर अह मासंतरि रहइ खलु
वणि सराएं मग्गिड राएं देहि फलु । तेण पत्तरं देव णित्तं गिट्टिय
रुि दूरंतर परदीवंतरि संठियई । पत्ता - फलसंदोहु मई सुरवरहुं पसाएं लद्धउ ॥ णिच्छउ णिट्ठियउ लइ पई जि भडारा खद्धउ ||७||
सा
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सुञ्च वसुहाहिव कहमि तुज्झ तु पुणु पहु अवलोयणि तसं त
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एवहिं ते देव ण देंति मज्झ । इरहं कह महिमंडलि वसंति ।
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उसका भोजन बनानेवाला अमृतरसायन नामका रसोइया त्रस्त हो उठा । उसने लक्ष्मी धारण करनेवाले राजाके हाथमें कढ़ी दी जो लारजल उत्पन्न करनेवाली कोमल इमलीके समान थी । उसे खाते हुए और रस चखते हुए राजाने अपना माथा ठोका तथा उसके गुणोंको दोष लगाते हुए क्रुद्ध होकर जो कुछ कहा उसका मूर्ख दुष्ट खलसमूहने समर्थन किया। उस धीर रसोइएका जीवन नष्ट हो गया । क्रोधपूर्वक मरकर वह ज्योतिष देव हुआ और वह प्रच्छन क्रोधसे सैठका रूप बनाकर वहाँ पहुँचा कि जहाँ राजा था । उसने जीभके लालची राजाको बहुरस भेदवाले अनेक योग्य फल दिये । एक पक्ष अथवा माह व्यतीत होनेपर एकान्त में राजाने रागपूर्वक उस दुष्ट बनियेसे याचना की - "फल दो ।" उसने कहा- हे देव, निश्चित रूपसे फल समाप्त हो गये हैं और वे अत्यन्त दूर द्वीपान्तर में हैं ।
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घत्ता - वह फलसमूह मैंने सुरवरके प्रसादसे प्राप्त किया था, वह अब खत्म हो गया है । हे आदरणीय, वह आपने खा लिया है ||७|
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वसुधाधिप में तुमसे सच कहता हूँ । इस समय वे देव मुझे फल नहीं देते । हे स्वामी, ८. A झिदुलिय । ९. A भक्खंतई । १०. A चक्खंतई । ११. A राएं रूसिवि । १२. P राइयई । १३. AP बहुविहभेयई । १४. P ढोइयई । १५. P गहपक्वंतरि । १६. A णिउत्तउ ।
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