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-६५.१९.३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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णियजणणीसस णविवि नियच्छिय अम्मि अम्मि भोयणु भल्लारडं एहउं नृवहं मिणउँ संपज्जइ अक्खि रेणुयाइ विह से पिणु ताइ वुत्तु अम्हहं चिंतिउ फलु जं अंबाइ एम आहासिउँ रयणई होंति महीयलवालह तासु वि तहिं जि चित्त आसत्तउं चउरासमगुरु रयणिहिं अंच
धत्ता-गाइ ण देमि म पत्थहि
तो तं सुणिवि तेण महिणाहें झत्त अमरवरसुरहि हड्डिय धरइ जमयग्गि ण संकइ
माच्छिय कयवीरें पुच्छिय । जहिं चक्खिज्जइ तहिं रससारउं । तुम्ह तावसाहं हि जुज्जइ । ग बंधव सुरघेणु देष्पिणु ।
तो पुणु वणि भुंजहुं दुर्महलु | तणएं तं णिपिउहि पयासिउ । उ तवैसिद्दिपसरियजडजालहं । कयवीरें कर मडलिवि वुत्तरं । दिव्वगाइ दिय देहि म वंचहि । अरितरुणिय र सिहि ।
विणु गाइइ अम्हारइ ण सरइ होमविहि || १८ ||
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गोहणद्धे णं वणवाहें । कंचणदामइ धरिवि णियड्डिय । रेणु कल करहुं ण थक्कइ ।
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अपनी माँकी बहनको प्रणाम कर कृतवीरने उसे देखा । मौसीसे उसने पूछा, "हे माँ, हे मां, भोजन बहुत अच्छा है, जहांसे भी चखो, वहींसे रसमय है । ऐसा भोजन तो राजाओंके लिए भी सम्भव नहीं है । तुम तपस्वियोंके लिए यह कैसे प्राप्त होता है ?" तब रेणुका हँसकर बोली, "मेरा भाई सुरधेनु देकर गया है, हे पुत्र, उसके द्वारा हमारे लिए चिन्तित फल मिलते हैं, नहीं तो वनमें हम वृक्षोंके फल खाते हैं ।" जब मौसीने इस प्रकार कहा तो पुत्रने यह अपने पिता के लिए बताया कि रत्न धरतीका पालन करनेवालोंके होते हैं न कि तपस्याकी आगसे जटाजाल बढ़ानेवालोंके। उसका (सहस्रबाहुका ) चित्त भी उसमें आसक्त हो गया । कृतवीरने उससे हाथ जोड़कर कहा, "चारों आश्रमोंके गुरु (राजा) की तुम रत्नोंसे अर्चा करो। हे द्विज, तुम दिव्य गाय दो, धोखा मत दो ।"
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घत्ता - ( द्विजने कहा ) - शत्रुरूपी वृक्षोंके समूह के लिए आगके समान हे ( कृतवीर ), मैं राजाके लिए गाय नहीं दूँगा । गायके बिना हमारी यज्ञविधि पूरी नहीं होगी || १८ ||
१८. १. AP णिवहं । २. Pण वि । ३ AP दुमफलु । ४. णियपियहि । ५. A तवसियपसरियं । १९. १. Pता तें सुणिवि । २. AP महिड्डिय ।
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तब गोधन के लोभी उस राजाने मानो भीलके समान महा ऋद्धि सम्पन्न वह सुरधेनु स्वर्णकी श्रृंखलासे पकड़कर खींच ली । जमदग्नि बाहुओंसे उसे पकड़ता है, शंका नहीं करता,
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