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महापुराण
[६५. १६.९जइयतुं महु विवाहु किउ ताएं तइयहुं धणु ण दिण्णु पई भाएं। अज्जु देहि बंधव जैइ भावइ . जेण दुक्खु दालिद वि णावइ । घत्ता-भणइ मुणीसरु सुंदरि छिंदैहि कुमयमइ ॥
दसणणाणचरित्तई रयणई तिण्णि लइ ।।१६।।
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ता सम्मत्तु वियारे सहियउ सावयवउ मुद्धइ संगहियउ। तुट्ठ भडारउ सुट्ठ वियक्खणु करुणे करिवि सबहिणिणिरिक्खणु । परसुमंतु परिरक्खणु देते
दिण्णी कामधेणु भयवंत । हूई रेणुय ताइ कयत्थी
पभणइ भिक्खुहि पंजलिहत्थी । तुम्हारिसहं सजीउ वि देतहं दीणुद्धरणु सहाउ महंतहं । ससहि महंतु हरिसु पयणेप्पिणु गउ रिसि धम्मविद्धि पभणेप्पिणु । कामधेणु हियइच्छिउ दुभइ तं तावसकुडुंबु तहिं रिज्झइ । अण्णहि वासरि सुरगिरिधीरे , सहसबाहु संजुउ कयवीरें। गहणणिहेलगु छुडु जि पइट्ठउ राउ तवोहणेण ते दिट्ठउ । घत्ता-अब्भागयपडिवत्तिइ भोयणु दिण्णु तहु ॥
हिर भिण्णउं दोहं मि कुअरहु पत्थिवहु ॥१७॥ देखने के लिए आये । प्रणाम करते हुए बहन ने हंसी-हँसीमें कुछ तो भी मांगा-"जब पिताने मेरा विवाह किया था तो तुम भाईने मुझे कुछ भी धन नहीं दिया था। हे भाई, यदि अच्छा लगे तो मुझे आज दो। जिससे दुख और दारिद्रय न फटके।"
घत्ता-मुनीश्वर कहते हैं- "हे सुन्दरि, अपनी कुमतबुद्धिको दूर करो और सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चरित्र ये तीन रत्न स्वीकार करो" ||१६||
तब उस मुग्धाने ज्ञानके साथ सम्यक्त्व श्रावक व्रत स्वीकार कर लिये। अत्यन्त विचक्षण अपनी बहनसे भेंट करनेवाले आदरणीय मुनि परम सन्तुष्ट हुए और करुणा कर उसे परिरक्षण मन्त्र सहित फरसा देते हुए उन्होंने ज्ञानवान् एक कामधेनु दो। रेणुका उससे कृतार्थ हो गयी। हाथ जोड़कर उसने महामुनिसे कहा-"अपना जीवन भी देनेवाले आप जैसे महापुरुषोंका स्वभाव ही दोनोंका उद्धार करना है।" इस प्रकार अपनी बहन के लिए महान् हर्ष उत्पन्न कर और धर्मवृद्धि हो-यह कहकर वह मुनि चले गये। वह कामधेनु इच्छानुसार दुही जाती और वह तपस्वी परिवार वहाँ सम्पन्न हो गया। दूसरे दिन सुमेरुपर्वतके समान धोर कृतवीरके साथ सहस्रबाहु आया। वह शोघ्र तापस-गृहमें प्रविष्ट हुआ। तपोधन ( जमदग्नि ) ने राजाको देखा।
घत्ता-अभ्यागतको ( आतिथ्यकी ) परम्पराके अनुसार उसके लिए भोजन दिया गया। राजा और कुमार ( कृतवीर ) का हृदय आश्चर्यसे चकित हो गया ॥१७||
६. A जं भावह । ७. A दालिद्द ण आवइ; P दालिद्द वि ण आवइ । ८. A छडुहि । १७. १. A सुद्धे । २. P पररक्ख ण । ३. P तें। ४. P तहिं । ५. AP हियव । ६. A कुमरहु ।
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