Book Title: Mahapurana Part 3
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 507
________________ ४६० महापुराण [६५. १९. ४तवसिहि करु करेण आच्छोडिउ णिञ्चलु मेइणियलि सो पाडिउ । णीसारिय णंदिणि मढवासहु णं णियजीयवित्ति तणुदेसहु । उद्धाबद्धणिविडजडमंडलु सवणोलंबियतंबयकुंडलु । सोत्तरीयउववीययउरयलु धूलिधवेलु अवलोइयमुयबलु । बद्धतोणु परिवढियअमरिसु धाइड सर मुयंतु रणि तावसु । दोण्णि तिण्णि चउ पिच्छंचिय वर पंच सत्त णव दह चंचलयर। बारह तेरह पुणु पण्णारह सोलह बाण मुक सत्तारह । णहयलुसरसंछण्णु ण दीसइ सहसबाहु णियरहियहु भासइ । घत्ता-वाहि वाहि रहु तुरिएं संघारमि कुमइ ॥ ___ एहा महियलि जइ जइ तो केहा णिवइ ।।१९।। २० बाणहिं बाण हणेप्पिणु विद्धउ णं चंदणतरु णायहिं रुद्धउ । जइ विचित्तमइदइएं घाइउ सयबिंदुहि तणुरुहु विणिवाइउ । णाहमरणि दुक्खेण विसट्टइ गाइ ण जाइ हयवि पलट्टइ। महिपलोट्ट णियसामि णिहालइ पुच्छि विजइ जीहइ लालइ । रेणुका कलकल करते हुए नहीं थकती। तपस्वीके हाथको उसने अपने हाथसे झकझोर दिया और उसे अचेतन धरतीपर गिरा दिया। आश्रमसे नन्दिनी निकाल ली गयी मानो शरीरप्रदेशसे अपनी जीववृत्ति निकाल ली गयी हो। जिसका निविड जटामण्डल ऊपर बंधा हुआ है, जिसके लाललाल कुण्डल कानों तक लटक रहे हैं, जो वक्षपर उत्तरीय और यज्ञोपवीत पहने हुए हैं, जो धूलसे धूसरित है और बार-बार अपनी भुंजाएं देख रहा है, जिसने तूणीर ( तरकस ) बांध रखा है, जिसका अमर्ष बढ़ रहा है ऐसा वह तपस्वी ( जमदग्नि ) तीर छोड़ता हुआ युद्ध में दौड़ा। उसने पुंखसे शोभित दो, तीन, चार, पांच, सात, नो और दस, बारह, तेरह फिर पन्द्रह, सोलह और सत्तरह चंचल तीर छोड़े। तीरोंसे आच्छन्न आकाश दिखाई नहीं देता। तब सहस्रबाहु अपने सारथिसे कहता है पत्ता-अश्वसे शीघ्र-शीघ्र रथ बढ़ाओ, मैं उस कुमतिको मारूंगा। यदि धरतीपर इस प्रकारके यति हैं, तो राजा किस प्रकारके होंगे ॥१९॥ २० तीरोंसे तीरोंको आहत कर उसने उसे विद्ध कर दिया, मानो चन्दनवृक्षको नागोंने अवरुद्ध कर लिया हो । विचित्रमतिके पति ( सहस्रबाहु ) ने यतिको आहत कर दिया। शतबिन्दुका पुत्र मार डाला गया। अपने स्वामीके मरनेपर गाय दुःखसे आहत हो उठती है, वह आगे ३. A तहिं पाडिउ । ४. AP adds after this : चल्लिउ लेवि जाम णियवासह ( A णियदेसह ) । ५. A omits this foot ६. P तणु देतहु । ७. A समणोलंबिय। ८. A सोत्तरीउ । ९. A धवलु। १०: AP सर। ११. A णहयलु संछण्णउ उ दीसइ; Pणहयलु उण्णु ण बाणहिं दोसइ । १२. वाहु वाहु । २०. १. AP चंदणतरु णं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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