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-६३. १०.१२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-हिरिसेणहि वर्यविहिखीणहि पायपोमथुइरायई ।
णरमहियई तिसंयहि सहियई सहिसहासई जायई ॥९॥
१०
झाणमोणणियमियणियमइयउ एत्तियाउ भणियउ संजइयउ । लक्खइं दुह सावयह संलग्यह सुरकित्तीपमुहहं णिविग्घेहं । अरुहदासिपमुहाहं सुइत्तई सावईहिं चउलक्खई वुत्तई । देव असंख संख मृगकुलरुह एकदुखुर गयवय जाया बुह । पंचवीससहसई वोलीणई वरिसहं सोलहव रिस विहीणई। हिंडिवि महियलि धम्मु कहेप्पिणु ___ मासमेत्तु जीविउ जाणेप्पिणु । गिरिसंमेयारुहणु करेप्पिणु चरमसुक्कु दियहेहिं धरेप्पिणु । जेट्टचउहसिवासरि कोलइ भरणिरिक्खि धरणीमुहि विमलइ । गउ जगसिहरहु संति भडारउ देउ समाहि बोहि भवहारउ । सहुं चक्काउहेण तवैरिद्धई णवसहसइं रिसिणाहह सिद्धई। घत्ता-सुविलेवणु घल्लिवि कुसुमई मेल्लिवि पविउ तहिं अग्गिदहिं ।।
मणि ईहिय सिद्धणिसीहिय णविय भरेण सुरिंदहिं ॥१०॥ घत्ता-व्रतोंकी विधिसे क्षीण हरिषेणा आदि आर्यिकाएं साठ हजार तीन सौ थीं। जिसके चरण राजाओंके द्वारा स्तुत थे और जो देवों सहित मनुष्यों द्वारा पूज्य थीं ॥९॥
ध्यान और मोनसे जिन्होंने अपनी मति संयत कर ली है ऐसे संयमी और श्लाघनीय, सुरकीर्ति-प्रमुख विघ्न रहित दो लाख श्रावक थे। अर्हदासी आदिको लेकर चार लाख पवित्र
श्राविकाएं कही गयी हैं। देव असंख्यात थे और तिर्यंचयोनिके पशु संख्यात थे। एक दो खुरवाले • ज्ञानव्रतसे युक्त पण्डित । सोलह वर्ष रहित पचीस हजार वर्ष बीत गये। धरती तलपर भ्रमण कर
और धर्मका कथन कर तथा अपना जीवन एक माह शेष जानकर, सम्मेदशिखर पर्वतपर आरोहण कर कुछ दिनों तक चरम शुक्लध्यान धारण कर, ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशीके दिन, भरणी नक्षत्रमें पवित्र धरतीके अग्रभाग विश्वके शिखरपुर आदरणीय शान्तिनाथ चले गये। भवका हरण करनेवाले देव मुझे समाधि प्रदान करें। तपसे समृद्ध नौ हजार मुनिनाथ भी चक्रायुधके साथ सिद्ध हो गये।
पत्ता-सुन्दर लेप कर, फूल डालकर वहां अग्नीन्द्र देवोंने प्रणाम किया ( शवका )। देवेन्द्रोंने भी मनमें अभीप्सित सिद्ध नृसिंह उनको प्रणाम किया ॥१०॥
८. AP विहिलीणहि । ९. P तिसई सहियई। १०.१. P सलग्बई । २. P णिविग्घई। ३. A सुवत्तई। ४. AP मिग । ५. A बहलइ । ६. AP गुण
रिद्धई। ७. A णवसयाई। ८. AP कालायक घल्लिवि सुरतरु दिण ( ण्ण ?) अग्नि अग्गिदहिं ।
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